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Showing posts from 2017

ग़ज़ल - करो कुछ तो हँसने हँसाने की बातें

वो करते रहे ज़ुल्म ढाने की बातें वो तीर-ए-नज़र वो निशाने की बातें करो कुछ तो हँसने हँसाने की बातें बहुत हो गईं दिल दुखाने की बातें ज़माना तो जीने भी देगा न हमको कहाँ तक सुनोगे ज़माने की बातें हटाओ भी , क्या ले के बैठे हो जानम ये खोने के शिकवे , ये पाने की बातें ये ताने , ये तिशने , ये शिकवे , ये नाले किया करते हो दिल जलाने की बातें यहाँ कौन देता है जाँ किसकी ख़ातिर किताबी हैं ये जाँ लुटाने की बातें चलो छोड़ो “ मुमताज़ ” अब मान जाओ भुला दो ये सारी भुलाने की बातें 

ग़ज़ल - अगर नालाँ हो हमसे

अगर नालाँ हो हमसे , जा रहो ग़ैरों के साए में अजी रक्खा ही क्या है रोज़ की इस हाए हाए में हज़ारों बार दाम-ए-आरज़ू से खेंच कर लाए प अक्सर आ ही जाता है ये दिल तेरे सिखाए में बिल आख़िर बेहिसी ने डाल दीं जज़्बों पे ज़ंजीरें न कोई फ़र्क़ ही बाक़ी रहा अपने पराए में नहीं बदला अगर तो रंग इस दिल का नहीं बदला मुसाफ़िर आते जाते ही रहे दिल की सराए में मयस्सर है हमें सब कुछ प दिल ही बुझ गया है अब कहाँ वो लुत्फ़ बाक़ी जो था उस अदरक की चाए में जहाँ से छुप छुपा कर आ बसे हैं हम यहाँ जानाँ दो आलम की पनाहें हैं तेरी पलकों के साए में निबाहें किस तरह “ मुमताज़ ” हम इस शहर-ए-हसरत से हज़ारों ख़्वाहिशें बसती हैं उल्फ़त के बसाए में 

फ़ैज़ के नाम

दिल में सोचा है जुनूँ की दास्ताँ लिक्खूँ मैं आज फ़ैज़ की ख़िदमत में लिक्खूँ मैं अक़ीदत का ख़िराज फ़ैज़ वो , जिसने उठाया शायरी में इन्क़िलाब फ़ैज़ वो , जो था हर इक हंगामा-ए-ग़म का जवाब जिसके दिल में दर्द था इंसानियत के वास्ते क़ैद की गलियों से हो कर गुज़रे जिसके रास्ते उसका दिल इंसानियत के ज़ख़्म से था चाक चाक उसका शेवा आदमीयत , उसका मज़हब इश्तेराक तेशा-ए-ज़ुल्म-ओ-सितम से जिसका दिल था लख़्त लख़्त इम्तेहाँ जिसके लिए थे गर्दिश-ए-दौराँ ने सख़्त काँप उठा था जिसके डर से हुक्म-ए-शाही का दरख़्त हिल उठा था ताज-ए-शाही और लरज़ उट्ठा था तख़्त ज़हर थी आवाज़ उसकी हुक्मरानों के लिए और अमृत बन के बरसी हमज़ुबानों के लिए जिसका हर इक लफ़्ज़ हसरत का सिपारा बन गया जो अदब के आस्माँ का इक सितारा बन गया ज़ुल्म क्या ज़ंजीर पहनाता किसी आवाज़ को क़ैद कोई क्या करेगा सोच की परवाज़ को उसकी हस्ती को मिटा पाया न कोई हुक्मराँ ता अबद क़ायम रहेगी फ़ैज़ की ये दास्ताँ अक़ीदत का ख़िराज – श्रद्धांजलि , इन्क़िलाब – क्रांति , चाक चाक – टुकड़े टुकड़े , शेवा – तरीका , इश्तेराक – सर्व धर्म सम भाव , तेशा – क

नया आग़ाज़

रतजगे चुभने लगे जब मेरी इन आँखों में मैं ने रातों के अँधेरों को वहीं छोड़ दिया रास आया न मुझे जब ये सराबों का सफ़र मैं ने तक़दीर के हर पेच का रुख़ मोड़ दिया अब जलन है न कहीं शोर न तन्हाई है दूर तक एक नज़ारा है घनी छाँओं का हद्द-ए-बीनाई तलक सामने हरियाली है हिम्मतें लेती हैं बोसा मेरे इक पाँओं का जाग उठीं हसरतें , अरमानों ने अंगड़ाई ली मुद्दतों बाद जो बेजानों ने अंगड़ाई ली छोड़ कर माज़ी-ए-ज़र्रीं की सुनहरी यादें एक अंजान मुसाफ़त पे निकल आई हूँ सराबों का – मरीचिकाओं का , हद्द-ए-बीनाई – दृष्टि की सीमा , बोसा – चुंबन , माज़ी-ए-ज़र्रीं – सुनहरा अतीत , मुसाफ़त – सफ़र 

उट्ठी जो आह दिल पे जमी बर्फ़ तोड़ कर

उट्ठी जो आह दिल पे जमी बर्फ़ तोड़ कर शिरियानों से ले आई लहू तक निचोड़ कर क़िस्मत के ये शिगाफ़ भरे जाएँ किस तरह देखा है उसके दर पे जबीं को भी फोड़ कर तेरे करम की आस में कब से हैं मुन्तज़िर आ सामने कि चूम लें कदमों को दौड़ कर रक्खा है बार बार भरम इल्तेफ़ात का बिखरी हुई वजूद की किरचों को जोड़ कर जाने ये किसकी मात थी , किसको मिली सज़ा सायों से इंतेक़ाम लिया धूप ओढ़ कर इस रहबरी में क्या कहें कैसे थे मज़्मरात हम साथ साथ चलते रहे मुंह को मोड़ कर इस तल्ख़ी-ए-हयात की शिद्दत न पूछिए “ मुमताज़ ” रख दिया है कलेजा मरोड़ कर शिरियानों से - नसों से ,  शिगाफ़ – दरार , जबीं – माथा , मुन्तज़िर – प्रतीक्षारत , इल्तेफ़ात – मेहरबानी , मज़्मरात – रहस्य 

आँख पर पहरा, ज़ुबानों पे लगा ताला है

आँख पर पहरा , ज़ुबानों पे लगा ताला है बाग़बाँ ने ये चमन ख़ुद ही जला डाला है दिल ने दामन में अँधेरों को सदा पाला है रात तो रात , सवेरा भी अभी काला है रंग तक़दीर का अपनी जो ज़रा काला है रौशनी के लिए हमने भी ये दिल बाला है मिन्नतें की हैं , दिया है ज़रा बहलावा भी कैसी हिकमत से तमन्ना को अभी टाला है दर्द रह रह के उठा करता है दिल में अब भी टीसता रहता है , दिल पर जो पड़ा छाला है कितने अरमानों से हमने जो सजाया था कभी आरज़ू का वो नगर आज तह-ओ-बाला है हमने “ मुमताज़ ” नई राह पे चलने के लिए इक नई शक्ल में अब रूह को फिर ढाला है तह-ओ-बाला – ऊपर नीचे 

धुँधला धुँधला सा हर नज़ारा है

धुँधला धुँधला सा हर नज़ारा है जाने क़िस्मत का क्या इशारा है जल गई है तमामतर हस्ती दिल है सीने में या शरारा है उससे भागूँ भी , उसको चाहूँ भी दुश्मन-ए-जाँ है फिर भी प्यारा है ग़म में , तन्हाइयों में , वहशत में हम ने अक्सर उसे पुकारा है एक मैं , एक तसव्वर तेरा अब तो दिल का यही सहारा है जाने अंजाम आगे क्या होगा दिल अभी से जो पारा पारा है हमने “ मुमताज़ ” उनके जलवों से अपनी तक़दीर को सँवारा है 

जो है जज़्बात में मौजों सी तुग़यानी, नहीं जाती

जो है जज़्बात में मौजों सी तुग़यानी , नहीं जाती किसी सूरत हमारी दिल की सुल्तानी नहीं जाती उसे गुज़रे हुए यूँ तो , ज़माना हो चुका है अब मगर वो बेवफ़ा है , बात ये मानी नहीं जाती न जाने कौन सी मंजिल पे आ पहुंचा सफ़र अपना जहाँ ख़ुद अपनी भी आवाज़ पहचानी नहीं जाती तअस्सुब से कोई तामीर मुमकिन ही नहीं साहब मोहब्बत की ये मिट्टी बैर से सानी नहीं जाती बिगड़ कर रह गया दिल मस्लेहत की ऐश-ओ-इशरत में जहान-ए-रंज-ओ-ग़म की ख़ाक अब छानी नहीं जाती चलन तो आम है फ़ितनागरी का इस ज़माने में मगर अब तक हमारे दिल की हैरानी नहीं जाती तिजारत का ज़माना है कि बिक जाता है ईमाँ भी बताओ , किस के घर रिश्वत की बिरयानी नहीं जाती छुपा लो तुम ही ख़ुद को सैकड़ों पर्दों में ख़ातूनो ज़माने की निगाहों से तो उरियानी नहीं जाती गुज़र जाने दें तूफाँ को , ज़रा झुक कर , तो बेहतर है ये जिद बेकार की "मुमताज़" अब ठानी नहीं जाती जज़्बात-भावनाएं , मौजों सी-लहरों सी , तुगियानी-हलचल , तअस्सुब-तरफदारी , अना-अहम् , तिजारत – व्यापार , ख़ातूनो – औरतों ,  उरियानी – नंगापन 

वो सितमगर आज हम पर वार ऐसा कर गया

वो सितमगर आज हम पर वार ऐसा कर गया ये सिला था हक़परस्ती का कि अपना सर गया रूह तो पहले ही उसकी मर चुकी थी दोस्तो एक दिन ये भी हुआ फिर , वो जनाज़ा मर गया वो लगावट , वो मोहब्बत , वो मनाना , रूठना ऐ सितमगर तेरे हर अंदाज़ से जी भर गया ताक़त-ओ-जुरअत सरापा , नाज़-ए-शहज़ोरी था जो जाने क्यूँ दिल के धड़कने की सदा से डर गया एक लग़्ज़िश ने ज़ुबाँ की जाने क्या क्या कर दिया तीर जो छूटा कमाँ से काम अपना कर गया सर झुकाए आज क्यूँ बैठा है तू ऐ तुंद ख़ू कजकुलाही क्या हुई तेरी , कहाँ तेवर गया एक उस लम्हे को दे दी हम ने हर हसरत कि फिर ज़िन्दगी से सारी मस्ती , हाथ से साग़र गया ऐ तमन्ना , तेरे इस एहसान का बस शुक्रिया हर अधूरे ख़्वाब से “ मुमताज़ ” अब जी भर गया हक़परस्ती - सच्चाई की पूजा , जुरअत – हिम्मत ,  सरापा – सर से पाँव तक , नाज़-ए-शहज़ोरी – तानाशाही का गौरव , लग़्ज़िश – लड़खड़ाना , तुंद ख़ू – बद मिज़ाज , कजकुलाही – स्टाइल , साग़र – प्याला (शराब का)

गुज़ारा हो नहीं सकता हमारा कमज़मीरों में

गुज़ारा हो नहीं सकता हमारा कमज़मीरों में यही इक ख़ू ग़लत है हम मोहब्बत के सफ़ीरों में हुकूमत है हमारी दिल की दुनिया के अमीरों में है दिल सुल्तान लेकिन है नशिस्त अपनी फ़क़ीरों में लहू बन कर रवाँ वो जिस्म की रग रग में था शायद ख़ुदा ने लिख दिया था उसको हाथों की लकीरों में कोई दीवाना शायद रो पड़ा है फूट कर यारो क़फ़स की तीलियाँ जलती हैं , हलचल है असीरों में तमाशा देखता है जो खड़ा गुलशन के जलने का वो फ़ितनासाज़ भी रहता है अपने दस्तगीरों में अना कोई , न है पिनदार , ग़ैरत है , न ख़ुद्दारी ज़ईफ़ी ये कहाँ से आ गई अपने ज़मीरों में इरादा क्या है , जाने कश्तियाँ वो क्यूँ बनाता है वो शहज़ादा जो रहता है मेरे दिल के जज़ीरों में सदा है , चीख़ है , इक दर्द है , “ मुमताज़ ” मातम है लहू की धार है सुर की जगह अबके नफ़ीरों में ख़ू – आदत , सफ़ीरों में – प्रतिनिधियों में , नशिस्त – बैठक , क़फ़स – पिंजरा , असीरों – क़ैदियों , दस्तगीरों – दिलासा देने वालों , पिनदार – इज़्ज़त , ज़ईफ़ी – कमज़ोरी , नफ़ीरों - बांसुरियों 

नारसा ठहरीं दुआएँ इस दिल-ए-नाकाम की

नारसा ठहरीं दुआएँ इस दिल-ए-नाकाम की डूबती ही जा रही है नब्ज़ तश्नाकाम की ये तड़प , ये दर्द , ये नाकामियाँ , ये उलझनें कोई भी सूरत नज़र आती नहीं आराम की   सारे आलम की तबाही एक इस उल्फ़त में है कोई तो आख़िर दवा हो इस ख़याल-ए-ख़ाम की छीन ली बीनाई मेरी एक इस ज़िद ने कि फिर देखा कुछ हमने न कुछ परवाह की अंजाम की कोशिशें नाकाम सारी , हर तमन्ना तश्नालब हम पे पैहम है इनायत गर्दिश-ए-अय्याम की हैफ़ , क़िस्मत के इरादे किस क़दर बरबादकुन इसने हर तदबीर मेरी आज तक नाकाम की एक अदना सी तमन्ना , इक मोहब्बत का सफ़र ज़िन्दगी की ये मुसाफ़त थी फ़क़त दो गाम की थम गई “ मुमताज़ ” वो धड़कन तो हस्ती चुक गई एक धड़कन वो जो थी जानम तुम्हारे नाम की तश्नाकाम – प्यासा , ख़याल-ए-ख़ाम – झूठा ख़याल , पैहम – लगातार , अय्याम – दिन , हैफ़ – आश्चर्य है  

हमसफ़र खो गए

हमसफ़र खो गए ज़िन्दगी की सुहानी सी वो रहगुज़र साथ साथ आ रहे थे मेरे वो मगर आज जाने हुआ क्या , मुझे छोड़ कर हाथ मुझ से छुड़ा कर वो गुम हो गए मैं भटकती रही जुस्तजू में यहाँ और रोती रहीं मेरी तन्हाइयाँ पर चट्टानों से टकरा के लौट आई जब टूटते दिल के टुकड़ों की ज़ख़्मी सदा ज़िन्दगी की सुहानी सी वो रहगुज़र एक तीराशबी का सफ़र हो गई रौशनी के सभी शहर गुम हो गए और मैं एक मुर्दा खंडर हो गई ऐ मेरे हमसफ़र मेरी खोई हुई राह के राहबर देख ले , मैं अकेली हूँ इस मोड़ पर और मेरे लिए आज हर इक सफ़र इन अँधेरों का लंबा सफ़र हो गया  

गर तसव्वर तेरा नहीं होता

गर तसव्वर तेरा नहीं होता दिल ये ग़ार-ए-हिरा नहीं होता एक दिल , एक तसव्वर तेरा बस कोई तीसरा नहीं होता पास-ए-माज़ी ज़रा जो रख लेते वो नज़र से गिरा नहीं होता होता वो मस्लेहत शनास अगर हादसों से घिरा नहीं होता ये तो हालात की नवाज़िश है कोई क़स्दन बुरा नहीं होता दिल को आ जाती थोड़ी अक़्ल अगर आरज़ू से भरा नहीं होता गुलशन-ए-दिल उजड़ के ऐ “ मुमताज़ ” फिर कभी भी हरा नहीं होता 

ये क्या कि अब तो दर्द भी दिल में नहीं रहा

ये क्या कि अब तो दर्द भी दिल में नहीं रहा ये कौन सा मक़ाम मोहब्बत में आ गया बेहिस हुई उम्मीद , तमन्नाएँ मर चुकीं इक ज़ख़्म-ए-ज़िन्दगी था सो वो भी नहीं रहा यूँ तो तमाम हो ही चुकीं बाग़ी हसरतें फिर भी कहीं है रूह में इक शोर सा बपा लगता है इख़्तेताम पे आ पहुंचा है सफ़र बोझल है जिस्म , कुंद नज़र , दिल थका थका माज़ी की धूल छाई है दिल के चहार सू दिन तो चढ़ आया , आज ये कोहरा नहीं छँटा “ मुमताज़ ” इस ख़ुलूस ने क्या क्या किया है ख़्वार इस लाइलाज रोग की क्या कीजिये दवा

वो तेवर क्या हुए तेरे, कहाँ वो नाज़ ए पिन्दारी

वो तेवर क्या हुए तेरे , कहाँ वो नाज़ ए पिन्दारी न वो जलवा , न वो हस्ती , न वो तेज़ी , न तर्रारी मिटा डालेगा तुझ को ये तेरा अंदाज़ ए सरशारी कहीं का भी न छोड़ेगी तुझे तेरी ये ख़ुद्दारी वही दिन हैं , वही रातें , वही रातों की बेदारी वही बेहिस तमन्ना , फिर वही हर ग़म से बेज़ारी न आया अब तलक ये एक फ़न हम को छलावे का लगावट की सभी बातें , मोहब्बत की अदाकारी ये शिद्दत बेक़रारी की , ये ज़ख़्मी आरज़ू दिल की कटीं यूँ तो कई रातें , मगर ये रात है भारी हक़ीक़त है , मगर फिर भी ज़माना भूल जाता है जला देती है हस्ती को मोहब्बत की ये चिंगारी ये दुनिया है , यहाँ है चार सू बातिल का हंगामा छुपाती फिर रही है मुंह यहाँ सच्चाई बेचारी मोहब्बत बिकती है , फ़न बिकता है , बिकती है सच्चाई ये वो दौर ए तिजारत है , के है हर फर्द ब्योपारी ग़रज़ , मतलब परस्ती , बेहिसी , " मुमताज़" बेदीनी वतन को खाए जाती है यही मतलब की बीमारी नाज़ ए पिन्दारी-गर्व के नखरे , अंदाज़ ए सरशारी- मस्ती का अंदाज़ , बेदारी-जागना , बेहिस तमन्ना-बेएहसास इच्छा , बेज़ारी- ऊब , फ़न-कला , अदाकारी-अभ

ज़िन्दगी का हर इरादा कैसा फ़ितनाकाम है

ज़िन्दगी का हर इरादा कैसा फ़ितनाकाम है पेशतर नज़रों के हस्ती का हसीं अंजाम है खो गए जाने कहाँ वो क़ाफ़िले , और अब तो बस एक हम हैं , इक हमारी ज़िन्दगी की शाम है ख़ाली दिल , ख़ाली उम्मीदें , ख़ाली दामन , ख़ाली हाथ एक सरमाया हमारा ये ख़याल-ए-ख़ाम है बेरुख़ी , नफ़रत , अदावत , हर अदा उनकी बहक़ हम ने पाला है अना को हम पे ये इल्ज़ाम है ये जहान-ए-आरज़ू अपने लिए बेकार है हमको तो अपनी इसी बस बेख़ुदी से काम है एक हल्की सी शरारत , एक मीठा सा सुकूँ लम्हा भर का ये सफ़र इस ज़ीस्त का इनआम है बढ़ चले हैं मंज़िलों की सिम्त फिर अपने क़दम दूर मुँह ढाँपे खड़ी वो गर्दिश-ए-अय्याम है चार पल में कर चलें “ मुमताज़ ” कुछ कारीगरी लम्हा लम्हा ज़िन्दगी का मौत का पैग़ाम है ख़याल-ए-ख़ाम – झूठा ख़याल , बहक़ – जायज़ 

एक छोटी सी पैरोडी

नेट पर हम तुम्हें क्या बताएँ किस क़दर चोट खाए हुए हैं फ़ेसबुक से मिटाए गए हैं व्हाट्स अप के सताए हुए हैं आज तक हम कभी न नहाए मैले कपड़े पहन कर हम आए आज ही हम ने बदले हैं कपड़े आज ही हम नहाए हुए हैं 

साँस ख़ामोश है, जाँकनी रह गई

साँस ख़ामोश है , जाँकनी रह गई एक तन्हा शमअ बस जली रह गई कारवाँ तो ग़ुबारों में गुम हो गया इक निगह रास्ते पर जमी रह गई ले गया जाते जाते वो हर इक निशाँ बस मेरी आँख में इक नमी रह गई ऐसी बढ़ती गईं ग़म की तारीकियाँ मुँह छुपाती हुई हर ख़ुशी रह गई उस ने जाते हुए मुड़ के देखा नहीं एक ख़्वाहिश सी दिल में जगी रह गई वक़्त के धारों में हर निशाँ धुल गया एक तस्वीर दिल पर बनी रह गई मिट गई वक़्त के साथ हर दास्ताँ याद धुंधली सी है जो बची रह गई उसने “ मुमताज़ ” हमको जो बख़्शी थी वो आरज़ू की अधूरी लड़ी रह गई जाँकनी – आख़िरी वक़्त , तारीकियाँ – अँधेरे

हौसला जिस दिन से तेरा बेतकाँ हो जाएगा

हौसला जिस दिन से तेरा बेतकाँ हो जाएगा आस्माँ उस रोज़ तेरा पासबाँ हो जाएगा अपनी हस्ती को मिटा डाला था जिसके वास्ते क्या ख़बर थी वो भी इक दिन बदगुमाँ हो जाएगा कर्ब को इक हुस्न दे दे , ज़ख़्म कर आरास्ता रास्ते का हर नज़ारा ख़ूँचकाँ हो जाएगा सर्द कर दे आग दिल की वर्ना इक दिन हमनशीं तेरा हर इक राज़ चेहरे से अयाँ हो जाएगा ये लहू मक़्तूल का भी रंग लाएगा ज़रूर ऐ सितमगर तू भी इक दिन बेनिशाँ हो जाएगा फ़ैसला वो जिसको हमने दे दी सारी ज़िन्दगी किसने सोचा था कि इक दिन नागहाँ हो जाएगा सोच लो “ मुमताज़ ” सौ सौ बार क़ब्ल-ए-आरज़ू इस अमल से तो तुम्हारा ही ज़ियाँ हो जाएगा बेतकाँ – अनथक , पासबाँ – रक्षक , कर्ब – दर्द , आरास्ता – सजा हुआ , ख़ूँचकाँ – ख़ून टपकता हुआ , हमनशीं – साथ बैठने वाला , अयाँ – ज़ाहिर , मक़्तूल – जिसका ख़ून हुआ हो , नागहाँ – अचानक , क़ब्ल-ए-आरज़ू – इच्छा से पहले , अमल – काम , ज़ियाँ – नुक़सान 

पलट के दूर से अक्सर सदाएं देता है

पलट के दूर से अक्सर सदाएं देता है तलब तो ज़हर की है , वो दवाएं देता है पलट के आ कभी इस सिम्त अब्र ए आवारा तुझे सुलगता ये सहरा सदाएं देता है लिबास उतार के हर बार ज़र्द पत्तों का नई , दरख्तों को मौसम क़बाएं देता है अजीब ढंग से करता है दुश्मनी वो भी कि ज़िन्दगी कि मुझे वो दुआएं देता है बुझाते फिरते हैं जो लोग हस्तियों के चिराग़ उन्हें भी मेहर ये अपनी शुआएँ देता है सुनाई देती है आहट बहार की जब भी वो मेरी रूह को सौ सौ खिजाएँ देता है ज़रा सी बुझने जो लगती है दिल की आग कभी ग़म ए हयात उसे फिर हवाएं देता है है जिस की रूह भी "मुमताज़" तार तार बहुत वो शख्स नंगे सरों को रिदाएँ देता है इस सिम्त- इस तरफ , अब्र-ए-आवारा-आवारा बादल , सहरा- रेगिस्तान , ज़र्द पत्तों का- पीले पत्तों का , क़बाएं- पोशाकें , मेहर- सूरज , शुआएँ- किरणें , खिजाएँ- पतझड़ , हयात-ज़िंदगी , रूह-आत्मा , रिदाएँ- चादरें 

ज़ब्त की हद से गुज़र कर जब तकानें आ गईं

ज़ब्त की हद से गुज़र कर जब तकानें आ गईं शम्स की ज़द में बलन्दी की उड़ानें आ गईं फिर सफ़र में आज वो इक मोड़ ऐसा आ गया याद हमको कुछ पुरानी दास्तानें आ गईं फिर वही रंगीं ख़ताएँ , लज़्ज़त-ए-ईमाँशिकन आज फिर दाँतों तले अपनी ज़बानें आ गईं इक परिंदे ने अभी खोले ही थे उड़ने को पर हाथ में हर इक शिकारी के कमानें आ गईं रंग रौग़न से सजे बीमार चेहरों की क़तार बिकती है जिनमें मोहब्बत वो दुकानें आ गईं हर क़दम पर अपनी ही ख़ुद्दारियाँ हाइल रहीं रास्ता आसान था लेकिन चट्टानें आ गईं फ़िक्र बेटी की लिए इक बाप रुख़सत हो गया ज़ुल्फ़ में चांदी , उठानों पर ढलानें आ गईं बेहिसी “ मुमताज़ ” दौर-ए-मस्लेहत की देन है ज़द में माल-ओ-ज़र के अब इंसाँ की जानें आ गईं ज़ब्त – सहनशीलता , तकानें – थकानें , शम्स – सूरज , ख़ताएँ – भूलें , लज़्ज़त-ए-ईमाँशिकन – ईमान को तोड़ देने वाला मज़ा , हाइल – अडचन , माल-ओ-ज़र – दौलत और सोना 

ख़्वाबों के बाज़ार सजाए बैठे हैं

ख़्वाबों के बाज़ार सजाए बैठे हैं कितने हैं जो घात लगाए बैठे हैं हश्र बपा है , रक़्स-ए-शरर है बस्ती में हम घर की ज़ंजीर लगाए बैठे हैं ज़ीस्त का मोल चुकाएँ इतनी ताब नहीं अरमानों को दिल में दबाए बैठे हैं सुबह-ए-दरख़्शाँ आएगी इस आस पे हम इन राहों पर आँख बिछाए बैठे हैं क़ीमत छोड़ो , जाँ की भीख ही मिल जाए कब से हम दामन फैलाए बैठे हैं धरती पर फिर उतरेगा ईसा कोई ख़्वाबों की क़ंदील जलाए बैठे हैं इक दिन तो “ मुमताज़ ” ये क़िस्मत चमकेगी ख़ुद को ये एहसास दिलाए बैठे हैं रक़्स-ए-शरर – चिंगारियों का नृत्य , ज़ीस्त – ज़िन्दगी , ताब – ताक़त , सुबह-ए-दरख़्शाँ – चमकदार सुबह