हमारे बीच पहले एक याराना भी होता था
हमारे बीच पहले एक याराना भी होता था कभी चेहरा तुम्हारा मेरा पहचाना भी होता था यही काफ़ी कहाँ था , तेरे आगे सर झुका देते हमें दुनिया के लोगों को जो समझाना भी होता था शिकम की आग में जलना तो फिर आसान था यारब मगर दो भूके बच्चों को जो बहलाना भी होता था फ़सीलें उन हवादिस ने दिलों में खेंच डाली थीं “ हर इक आबाद घर में एक वीराना भी होता था ” गुज़र कर बारहा तूफ़ान-ए-यास-ओ-बदनसीबी से फ़रेब-ए-ज़िन्दगी दानिस्ता फिर खाना भी होता था धरम और ज़ात के हर ऐब से जो पाक था यारो रह-ए-दैर-ओ-हरम में एक मयख़ाना भी होता था तुम्हें अब याद हो “ मुमताज़ ” की चाहे न हो लेकिन कभी दुनिया के लब पर अपना अफ़साना भी होता था