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Showing posts from February 14, 2017

नहीं सौदा हमें मंज़ूर, दौलत का ज़मीरों से

न ऐसे छेड़ कर बाद ए सबा तू हम हक़ीरों से क़फ़स से सर को टकराते हुए वहशी असीरों से नहीं सौदा हमें मंज़ूर , दौलत का ज़मीरों से कोई ये जा के कह दे इस ज़माने के अमीरों से लहू दिल का पसीना बन के बह जाना भी लाज़िम है मुक़द्दर यूँ नहीं खुलता हथेली की लकीरों से अज़ल से है मोहब्बत दहर वालों के निशाने पर मगर डरता कहाँ है इश्क़  तलवारों से, तीरों से घिरी है ज़िन्दगी बहर ए अलम में , ठीक है लेकिन बिखर जाती हैं मौजें सर को टकरा कर जज़ीरों से सितम परवर , ख़ामोशी को मेरी मत जान मजबूरी चटानें भी कभी कट जाती हैं पानी के तीरों से तजुर्बों ने हमें तोड़ा है , फिर अक्सर बनाया है अयाँ है राज़ ये "मुमताज़" चेहरे की लकीरों से बाद ए सबा-सुबह की हवा , हक़ीरों से-छोटे लोगों से , क़फ़स-पिंजरा , वहशी-पागल , असीरों से-बंदियों से , लाज़िम-ज़रूरी , अज़ल से-सृष्टि की शुरुआत से , दहर वालों के-दुनिया वालों के , बहर ए अलम-दर्द का सागर , मौजें-लहरें , जज़ीरों से-द्वीपों से , सितम परवर-यातनाओं को पालने वाले , अयाँ है-ज़ाहिर है 

वो दिलरुबाई के फ़न में कमाल रखता है

नज़र में तेग़ तो ज़ुल्फ़ों में जाल रखता है वो दिलरुबाई के फ़न में कमाल रखता है कुछ ऐसी लत है उसे ज़हर की कि इसके लिए वो आस्तीन में साँपों को पाल रखता है उठे तो जोश-ए-जुनूँ अर्श का बोसा ले ले रगों के ख़ूँ में वो ऐसा उबाल रखता है जहान-ए-मक्र-ओ-दग़ा में वो कामयाब है बस जो बेवफ़ाई के फ़न में मिसाल रखता है नज़र मिला के कोई कैसे उससे बात करे वो हर नज़र में हज़ारों सवाल रखता है सुबूत देता है जलते शरर की ठंडक का जिगर के ज़ख़्म पे जब अपना गाल रखता है है एक सैल-ए-रवाँ उसकी ज़िन्दगी यारो वो अपनी जाँ पे हज़ारों वबाल रखता है अदू से मिलता है “ मुमताज़ ” वो गले हँस कर वो हर शआर में इक ऐतदाल रखता है तेग़ – तलवार , दिलरुबाई के फ़न में दिल चुराने की कला में , बोसा – चुंबन , जहान-ए-मक्र-ओ-दग़ा – मक्कारी और धोखे की दुनिया , शरर – अंगारा , सैल-ए-रवाँ – बहता पानी , वबाल – मुसीबत , अदू – दुश्मन ,  शआर – चलन , ऐतदाल – दरमियाना रवैया

चलन ज़माने के ऐ यार इख़्तियार न कर

चलन ज़माने के ऐ यार इख़्तियार न कर ख़ुशी के साथ मेरी वहशतें शुमार न कर तेरी हयात का गुज़रा वो एक लम्हा है वो अब न आएगा , अब उसका इंतज़ार न कर तिजारतों में दिलों की सुना नहीं करते दिलों की बात पे इतना भी ऐतबार न कर हुआ तमाम वो क़िस्सा , कि बात ख़त्म हुई ज़रा सी बात पे आँखों को अश्कबार न कर मिलेगी कोई न क़ीमत मचलते जज़्बों की तू अपनी रूह के ज़ख़्मों का कारोबार न कर निदामतों के सिवा क्या तुझे मिलेगा यहाँ सवाल कर के तअल्लुक़ को शर्मसार न कर है इब्तेदा ही अभी मुश्किलों की , हार न मान अभी ग़मों को तबीयत पे आशकार न कर हिसार-ए-ज़ात को महदूद कर न इतना भी ये भूल जान के “ मुमताज़ ” बार बार न कर शुमार – गिनती , हयात – ज़िन्दगी , तिजारतों में – व्यापार में , अश्कबार – आंसुओं से भरी हुई , निदामत – शर्मिंदगी , आशकार – ज़ाहिर , हिसार-ए-ज़ात – व्यक्तित्व का घेरा , महदूद – सीमित 

हो गया ख़ाक तमन्ना का समरदार शजर

कब जला , कैसे जला , बिखरा कहाँ किसको ख़बर हो गया ख़ाक तमन्ना का समरदार शजर ज़िन्दगी लाई मुझे आज ये किस मंज़िल पर आए जाते हैं मेरे ज़ेर ए क़दम शम्स ओ गोहर दहक उट्ठा था बदन जल के हुआ ख़ाक वजूद मेरे आँगन में वो खुर्शीद जो आया था उतर अक्ल ख़ामोश है , बीनाई ने दम तोड़ दिया इक ख़ला , सिर्फ़ ख़ला बिखरा है ताहद्द ए नज़र जब तख़य्युल पे बहार आने लगे यादों की मेरी नमनाक निगाहों में खिज़ां जाए ठहर दिल के दामन में कहाँ तक मैं समेटूं तुझ को फिर सिमट भी न सके , यार तू ऐसे न बिखर फ़ासला घटता नहीं , राह कि कम होती नहीं होता जाता है तवील और तमन्ना का सफ़र किस तलातुम की सियाही से लिखी थी तू ने आज तक पड़ते रहे हैं मेरी क़िस्मत में भंवर मैं ने कब तुझ से कहा था कि तिजारत है गुनाह अब सर ए आम तो जज़्बात को नीलाम न कर ख़ून से सींचा है , हसरत से सँवारा है इसे कितना “ मुमताज़ ” लगे मेरी तबाही का समर खुर्शीद-सूरज , बीनाई-दृष्टि , ख़ला-खाली जगह , ता हद्द ए नज़र-दृष्टि की सीमा तक , तख़य्युल-ख़याल , नमनाक-भीगी हुई , खिज़ां-पतझड़ , ज़ेर ए क़दम-क़दमों के नीचे , शम्स ओ कमर

तेज़तर होती है अब ख़्वाबों की किरचों की चुभन

तेज़तर होती है अब ख़्वाबों की किरचों की चुभन बढती जाती है मेरी जागती आँखों की जलन जीने मरने की अदा है न मोहब्बत का चलन मिट चली आज ज़माने से वही रस्म ए कोहन ख़त्म होता ही नहीं अब के जुदाई का सफ़र सो गई ओढ़ के हर आरज़ू यादों का कफ़न दिल है मसहूर , तसव्वुर पे भी काबू न रहा कितना दिलकश है ये जज़्बात का बेसाख़्तापन कोई इफ़्कार का पैकर है , तसव्वुर है न ख़्वाब लग गया है मेरी तख़ईल को ये कैसा गहन सामने मंजिल ए मक़सूद है , क्या कीजे मगर रास्ता रोक रही है मेरे पाओं की थकन बेहिसी ऐसी , कि तारी है ख़यालों पे जमूद रूह में उतरी है ये सर्द हवाओं की गलन यूँ तो सब मिलता है , इंसान नहीं मिलता फ़क़त मर गई रस्म ए वफ़ा , सूख गईं गंग ओ जमन गिर पड़े अपने ही साए पे तड़प कर हम भी चुभ गई तलवों में "मुमताज़" जो राहों की तपन तेज़ तर-ज़्यादा तेज़ , रस्म ए कोहन-पुरानी रस्म , मसहूर-अभिमंत्रित , तसव्वुर-कल्पना , इफ़्कार-फिक्रें , पैकर-आकार , तख़ईल को-ख़यालों को , मंजिल ए मक़सूद-लक्ष्य , बेहिसी-भावना शून्यता , तारी है-छाया है , जमूद-जम जाना , रूह-आत्मा , फ़क़त-सिर्फ

ज़रा ज़रा सा मज़ा भी है दिल के क़ीने में

ज़रा ज़रा सा मज़ा भी है दिल के क़ीने में ये मीठी मीठी ख़लिश क्यूँ है आज सीने में नसीब में था लिखा डूबना , सो यूँ भी हुआ सुराख़ हो गया पतवार से सफ़ीने में छुपा के ज़ख्मों को रखना तो हम ने सीख लिया महक लहू की घुली रह गई पसीने में है बेशक़ीमती दौलत , मगर है जाँलेवा पले हैं नाग मोहब्बत के इस ख़ज़ीने में शराब से भी ज़ियादा ख़ुमार है इन में मज़ा अजीब सा आता है अश्क पीने में क़ुसूर क्या था मेरा , क्यूँ हयात रूठ गई कमी तो कोई कभी की न हम ने जीने में चमक तो ऐसी , कि आँखों में चुभ रही है , मगर ज़रा सा खोट भी है दिल के इस नगीने में जो मुनकशिफ़ हो तो हस्ती को ज़ेर ओ बम कर दे वो राज़ दफ़्न है "मुमताज़" इस दफ़ीने में क़ीने में-फ़साद में , ख़लिश-चुभन , सफ़ीने में-नाव में , ख़ुमार-नशा , अश्क-आंसू , हयात-जीवन , मुन्कशिफ-ज़ाहिर , ज़ेर ओ बम-तहस नहस , दफीने में-दबे हुए खज़ाने में 

मेरे सफ़ीने को तूफ़ाँ की नज़र-ए-करम ने देख लिया

मेरे सफ़ीने को तूफ़ाँ की नज़र-ए-करम ने देख लिया छुपते फिरे हम लाख मगर मौज ए बरहम ने देख लिया उम्दा था मलबूस भी और अलफ़ाज़ में भी आराइश थी जो था पस-ए-पर्दा बद चेहरा , वो भी हम ने देख लिया शोर मचाता सन्नाटा था , जाँ लेवा ख़ामोशी थी कैसे बताएं कौन सा मंज़र उस इक दम ने देख लिया दूर तलक हर पेड़ बरहना , पत्तों का रंग ज़र्द हुआ क्यूँ इतना वीरान है आख़िर , क्या मौसम ने देख लिया और भी नज़रें टेढ़ी कर लीं इन पेचीदा राहों ने मेरी थकन का हाल ज़रा राहों के ख़म ने देख लिया दहशत के इस खेल में आख़िर ख़ून के बदले क्या पाया अब तो दरिंदा बन के भी नस्ल ए आदम ने देख लिया दफ़्न था दिल की गहराई में जज़्बों का वो राज़ कहीं हम ने छुपाया लाख मगर , ज़हन ए मोहकम ने देख लिया फ़ासिद हो गई सारी इबादत , आज मेरा ईमान गया हम को किस "मुमताज़" नज़र से आज सनम ने देख लिया सफ़ीने को-नाव को , मौज ए बरहम-नाराज़ लहर , मलबूस-लिबास , अलफ़ाज़-शब्द , आराइश-सजावट , पस ए पर्दा-परदे के पीछे , बद चेहरा-खराब चेहरा , बरहना-नग्न , रुख़-चेहरा , ज़