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Showing posts from July 11, 2018

चार दिन की ख़ुशकलामी, ज़िन्दगी भर का अज़ाब

चार दिन की ख़ुशकलामी , ज़िन्दगी भर का अज़ाब इश्क़ की हस्ती ही क्या है , एक झोंका , इक सराब कोई जज़्बा , कोई हाजत , आरज़ू कोई ,   न ख़्वाब इस हक़ीक़त की ज़मीं पर हम ने बस पाया सराब ज़िन्दगी फिर मांगती है लम्हा लम्हा का हिसाब सर झुकाए हम खड़े हैं , अब इसे क्या दें जवाब कैसा ये सैलाब आया दिल के रेगिस्तान में ज़िन्दगी है रेज़ा रेज़ा , हसरतें हैं आब आब हर घड़ी दिल की ज़मीं पर रक़्स करती हैं हनोज़ इन शिकस्ता हसरतों को क्यूँ नहीं आता हिजाब इस ज़मीन-ए-ज़ात में अब ज़लज़ला आने को है ज़िन्दगी करने चली है आरज़ू का एहतेसाब अब गिला भी क्या करें आवारगी से दोस्तो हम तो ख़ुद करते रहे हैं वहशतों का इंतेख़ाब दिल जो मुतहर्रिक हुआ तो मिट गया सारा जमूद हस्ती-ए-बेहिस में यारो आ चुका है इन्क़ेलाब छूटते जाते हैं पीछे ख़ाल-ओ-ख़द , नाम-ओ-वजूद अलग़रज़ हम वक़्त से “ मुमताज़ ” अब हैं हमरक़ाब

हौसले ग़मों के हम यूँ भी आज़माते हैं

हौसले ग़मों के हम यूँ भी आज़माते हैं खिलखिलाते लम्हों से ज़िन्दगी चुराते हैं कोई ख़्वाब भी हम को ढूँढने न आ पाए नक़्श अब के पाओं के हम मिटाते जाते हैं ख़ूब हम समझते हैं रहनुमा की सब चालें जान बूझ कर अक्सर हम फ़रेब खाते हैं रौशनी तो क्या होगी झिलमिलाते अश्कों से इन रवाँ चराग़ों को आज हम बुझाते हैं दास्ताँ में तो उन का ज़िक्र तक नहीं आया उन को क्या हुआ आख़िर आँख क्यूँ चुराते हैं दिल के इस बयाबाँ में कोई तो नहीं आता आज फिर यहाँ किस के साए सरसराते हैं ढूंढती रहे “ मुमताज़ ” अब हमें सियहबख़्ती दास्ताँ अधूरी हम अब के छोड़ जाते हैं