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Showing posts with the label Ghazals

kabhi aasha jagaat hai

  कभी आशा जगाता है कभी सपने दिखाता है मेरे दिल के अँधेरों में उजाला झिलमिलाता है   अचानक बैठे बैठे आँख भर आती है , जाने क्यूँ ये कैसा दर्द है , ये कौन ग़म मुझ को रुलाता है   न जाने कौन से वहशतकदे में खो गई हूँ मैं मुझे बस इक यही ग़म रफ़ता रफ़्ता खाए जाता है   दिखा कर आसमां की वुसअतें , पर काट देता है मुक़द्दर इस तरह हर बार मुझ को आज़माता है   जो बरसों बंद हो , उस घर से बदबू आने लगती है जो खुल कर सच न कह पाये वो रिश्ता टूट जाता है   मेरी महरूमियों का आम है चर्चा ज़माने में मुझे "मुमताज़" मेरा अक्स भी अब मुंह चिढ़ाता है

जंग जब तूफ़ाँ से हो तो क्या किनारा देखना

जंग जब तूफ़ाँ से हो तो क्या किनारा देखना बैठ कर साहिल पे क्या दरिया का धारा देखना   माँगते हैं ख़ैर तेरी सल्तनत में रात दिन देखना , बस इक नज़र ये भी ख़ुदारा देखना   ये तुम्हारा क़हर तुम को ही न ले डूबे कहीं तुम ज़रा अपने मुक़द्दर का इशारा देखना   क्या बताएँ , किस क़दर दिल पर गुज़रता है गरां बार बार इन हसरतों को पारा पारा देखना   हौसलों को भी सहारा हो किसी उम्मीद का ऐ नुजूमी मेरी क़िस्मत का सितारा देखना   बारहा “मुमताज़” नम कर जाता है आँखें मेरी मुड़ के हसरत से हमें उसका दोबारा देखना     ख़ुदारा – ख़ुदा के लिए , क़हर – बहुत तेज़ ग़ुस्सा , गरां – भारी , पारा पारा – टुकड़े टुकड़े , नुजूमी – ज्योतिषी

तरब का पर्दा भी आख़िर इसे बचा न सका

तरब का पर्दा भी आख़िर इसे बचा न सका चिराग़ बुझने से पहले भी लपलपा न सका   हज़ार वार किए जम के रूह को कुचला ज़माना हस्ती को मेरी मगर मिटा न सका   सितम शआर ज़माने का ज़ब्त टूट गया जो मेरे ज़ब्त की गहराइयों को पा न सका   जता जता के जो एहसान दोस्तों ने किए मेरा ज़मीर ये बार-ए-गरां उठा न सका   जहाँ जुनून मेरा मुझ को खेंच लाया है वहाँ तलक तो तसव्वर भी तेरा जा न सका   क़लम भी हार गया , लफ़्ज़ साथ छोड़ गए तेरा वजूद किसी दायरे में आ न सका   छुपा के दिल की कदूरत गले मिलें “मुमताज़” हमें हुनर ये अदाकारियों का आ न सका   तरब – ख़ुशी , सितम शआर – जिसका चलन सितम करना हो , बार-ए-गरां – भारी बोझ , जुनून – सनक , तसव्वर – कल्पना , कदूरत – मैल , अदाकारी – अभिनय

किस को थी मालूम उस नायाब गौहर की तड़प

किस को थी मालूम उस नायाब गौहर की तड़प एक क़तरे में निहाँ थी दीदा-ए-तर की तड़प   फ़र्त-ए-हसरत से छलकते आबगीने छोड़ कर कोई निकला था सफ़र पर ले के घर भर की तड़प   भूक बच्चों की , दवा वालिद की , माँ की बेबसी कू ब कू फिरने लगी है आज इक घर की तड़प   ढह न जाए फिर कहीं ये मेरी हस्ती का खंडर कैसे मैं बाहर निकालूँ अपने अंदर की तड़प   कब छुपे हैं ढाँप कर भी ज़ख़्म तपती रूह के दाग़ करते हैं बयाँ इस तन के चादर की तड़प   ज़ब्त ने तुग़ियानियों का हर सितम हँस कर सहा साहिलों पर सर पटकती है समंदर की तड़प   आरज़ू , सहरा नवर्दी , ज़ख़्म , आँसू , बेबसी हासिल-ए-दीवानगी है ज़िन्दगी भर की तड़प   ये हमारी मात पर भी कितना बेआराम है देख ली “ मुमताज़ जी” हम ने मुक़द्दर की तड़प   नायाब – दुर्लभ , गौहर – मोती , क़तरे में – बूँद में , निहाँ – छुपी हुई , दीदा-ए-तर – आँसू भरी आँख , फ़र्त-ए-हसरत – बहुलता , आबगीने – ग्लास , वालिद – बाप , कू ब कू – गली गली , तुग़ियानियों लहरों की हलचल , साहिल – किनारा , आरज़ू – इच्छा , सहरा नवर्दी – मरुस्थल में भटकना , हासिल-ए-दीवानगी – पागलपन

किस को समझाएँ यहाँ हम दिल-ए-रंजूर की बात

किस को समझाएँ यहाँ हम दिल-ए-रंजूर की बात बुझते बुझते जो जला उस मह-ए-बे नूर की बात کس کو سمجھائیں یہاں ہم دلِ رنجور کی بات بجھتے بجھتے جو جلا اُس مہِ بے نور کی بات             जल न जाएँ कहीं जलवे की तपिश से आँखें ताब-ए-नज़्ज़ारा अगर हो तो करो तूर की बात جل نہ جائیں کہیں جلوے کی تپش سے آنکھیں تابِ نظارہ اگر ہو تو کرو طور کی بات आरज़ू मचली , तबीयत पे ख़ुमार आने लगा छेड़ दी किस ने सरापा मए-भरपूर की बात آرزو مچلی، طبیئت پہ خمار آنے لگا چھیڑ دی کس نے سراپا مئے بھرپور کی بات ले के शहवत की अजब एक चमक आँखों में शेख़ जी करते रहे देर तलक हूर की बात لے کے شہوت کی اجب ایک چمک آنکھوں مین شیخ جی کرتے رہے دیر تلک حور کی بات दार शरमाया , पशेमान हुआ दीन-ए-हक़ फिर अनल हक़ से अदा हो गई मंसूर की बात دار شرمایا، پشیمان ہوا دینِ حق پھر انا الحق سے ادا ہو گئی منصور کی بات मुंतज़िर लम्हों की वुस ' अत की न पूछो "मुमताज़" रात की बात भी लगती है बहुत दूर की बात منتظر لمحوں کی وسعت کی نہ پوچھو ممتازؔ رات کی بات بھی لگتی ہے بہت دور کی بات दिल-ए-रंजूर

हर दिल है बदगुमान, अना हुक्मराँ है अब

हर दिल है बदगुमान , अना हुक्मराँ है अब रिश्तों के रखरखाव में ख़ाली ज़ियाँ है अब ہر دل ہے بدگمان، انا حکمراں ہے اب رشتوں کے رکھ رکھاؤ میں خالی زیاں ہے اب देखा उन्हें तो दिल का समाँ और हो गया ख़ामोश है ज़ुबाँ , प नज़र में ज़ुबाँ है अब دیکھا اُنہیں تو دل کا سماں اور ہو گیا خاموش ہے زباں پہ نظر میں زباں ہے اب वो छोड़ कर गया है सराब-ए-उम्मीद में लम्हों का तूल ज़ेहन पे बार-ए-गराँ है अब وہ چھوڑ کر گیا ہے سرابِ امید میں لمحوں کا طول زہن پہ بارِ گراں ہے اب परवाज़ बस ख़याल की मंज़िल पे है अभी हाथों में हर शिकारी के देखो कमाँ है अब پرواز بس خیال کی منزل پہ ہے ابھی ہاتھوں میں ہر شکاری کے دیکھو کماں ہے اب बचपन में जो बसाया था साहिल की रेत पर वो शहर हसरतों का , बता दे , कहाँ है अब بچپن میں جو بنایا تھا ساحل کی ریت پر وہ شہر حسرتوں کا بتا دے کہاں ہے اب क्या जाने क्यूँ बहार भी नज़रें बचा गई गुलशन के हर शजर पे ख़िज़ाँ ही ख़िज़ाँ है अब کیا جانے کیوں بہار بھی نظریں بچا گئی گلشن کے ہر شجر پہ خزاں ہی خزاں ہے اب अपनी तमाज़तों से मेरे पर जलाए क्यूँ इतना उदा

कोई हमदम, न आशना बाक़ी

कोई हमदम , न आशना बाक़ी अब यहाँ कुछ नहीं बचा बाक़ी کوئی ہم دم نہ آشنہ باقی اب یہاں کچھ نہیں بچا باقی चंद यादों का इक ज़ख़ीरा है और जो कुछ था , मिट चुका , बाक़ी چند یادوں کا اک زخیرہ ہے اور جو کچھ تھا مٹ چکا باقی जुस्त जू में अभी नज़र है मेरी है अभी दिल में इक हिरा बाक़ी جستجو میں ابھی نظر ہے مری ہے ابھی دل میں اک حرا باقی हैं सज़ाएं तो पै ब पै जारी देखें , कब तक रहे जज़ा बाक़ी ہیں سزائیں تو پے بہ پے جاری دیکھیں کب تک رہے جزا باقی मुंह ख़ज़ानों का खोल दे मौला हैं अभी कितने ही गदा बाक़ी منہ خزانوں کا کھول دے مولیٰ ہیں ابھی کتنے ہی گدا باقی और तो कुछ नज़र नहीं आता रह गई गूंजती सदा बाक़ी اور تو کچھ نطر نہیں آتا رہ گئی گونجتی صدا باقی अब ये बोसीदा तन उतर भी जाय क्यूँ रहे रूह पर क़बा बाक़ी اب یہ بوسیدہ تن اُتر بھی جائے کیوں رہے روح پر قبا باقی बाग़ दिल का उजड़ चुका कब का है निगाहों में इक ख़ला बाक़ी باغ دل کا اجڑ چکا کب کا ہے نگاہوں میں اک خلا باقی इब्तेदा है मेरे जुनूँ की अभी है अभी मेरी इन्तहा बाक़ी ابتدہ ہے مرے جنوں کی ا

आशिक़ी का नशा नहीं बाक़ी

आशिक़ी का नशा नहीं बाक़ी दिल का वो मैकदा नहीं बाक़ी عاشقی کا نشہ نہیں باقی دل کا وہ میکدہ نہیں باقی बेहिसी की ये इंतेहा तौबा दर्द दिल में ज़रा नहीं बाक़ी بیحسی کی یہ انتہا طوبہ درد دل میں ذرا نہیں باقی इतने काँटे चुभे कि पाओं में अब कोई आबला नहीं बाक़ी اتنے کانٹے چبھے کہ پاؤں میں اب کوئی آبلہ نہیں باقی दर्द ने तोड़ दीं हदें सारी ज़ब्त का सिलसिला नहीं बाक़ी درد نے توڑ دیں حدیں ساری ضبط کا سلسلہ نہیں باقی ऐसी बेरब्तगी कि क्या कहिए कोई शिकवा गिला नहीं बाक़ी ایسی بےربطگی کہ کیا کہئے کوئی شکوہ گلہ نہیں باقی एक तेरा ही अक्स था जिस में दिल का वो आईना नहीं बाक़ी ایک تیرا ہی عکس تھا جس میں دل کا وہ آئینہ نہیں باقی ख़ैर "मुमताज़" बात ख़त्म हुई अब कोई वसवसा नहीं बाक़ी خیر ممتازؔ بات ختم ہوئی اب کوئی وسوسہ نہیں باقی मैकदा - मधुशाला , बेहिसी - भावना शून्यता , इंतेहा - चरम , आबला - छाला , बेरब्तगी - असंबद्धता , शिकवा गिला - शिकायतें , वसवसा - संदेह और बुरे ख़याल