दश्त-ओ-सहरा-ओ-समन्दर सभी घर ले आए
दश्त-ओ-सहरा-ओ-समन्दर सभी घर ले आए अब के हम बाँध के क़दमों में सफ़र ले आए कब तही दस्त हम आए हैं तेरी महफ़िल से ज़ख़्म ले आए , कभी ख़ून-ए-जिगर ले आए हो रही थी अभी परवाज़ बलन्दी की तरफ़ लोग ख़ातिर के लिए तीर-ओ-तबर ले आए कोई दावा , न इरादा , न तमन्ना , न हुनर हम में वो बात कहाँ है कि असर ले आए है यहाँ कितनी तजल्ली कि नज़र क़ासिर है मेरे जज़्बात मुझे आज किधर ले आए देखने भी न दिया जिसने नज़र भर के उसे हम कि हमराह वही दीदा-ए-तर ले आए टूट कर बिखरे पर-ओ-बाल हवाओं में मगर हम ने परवाज़ जो की , शम्स-ओ-क़मर ले आए डर के तुग़ियानी से ठहरे हैं जो , कह दो उन से हम समन्दर में जो उतरे तो गोहर ले आए अपनी राहों में सियाही का बसेरा था मगर हम अँधेरों से भी “ मुमताज़ ” सहर ले आए