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Showing posts from March 11, 2011

ग़ज़ल - 6 (ज़ुल्म को अपनी क़िस्मत माने)

ज़ुल्म को अपनी क़िस्मत माने , दहशत को यलग़ार कहे अपने हक़ से भी ग़ाफ़िल हो , कौन उसे बेदार कहे ZULM KO APNI QISMAT MAANE DAHSHAT KO YALGHAAR KAHE APNE HAQ SE BHI GHAAFIL HO KAUN USE BEDAAR KAHE ज़ख़्मों को बेक़ीमत समझे , अश्कों को ऐयार कहे ऐसे बेपरवा से अपने दिल की जलन बेकार कहे ZAKHMON KO BEQEEMAT SAMJHE ASHKON KO AIYYAR KAHE AISE BEPARWAAH SE APNE DIL KI JALAN BEKAAR KAHE अपना अपना ज़ौक़-ए-नज़र है , अपनी अपनी फ़ितरत है मैं इज़हार-ए-हाल करूँ तो तू उसको तक़रार कहे APNA APNA ZAUQ E NAZAR HAI APNI APNI FITRAT HAI MAIN IZHAAR E HAAL KA R UN TO TU US KO TAQRAAR KAHE सीख गया है जीने के अंदाज़ जहान-ए-हसरत में हर इक बात इशारों में अब तो ये दिल-ए-हुशियार कहे SEEKH GAYA HAI JEENE KE ANDAAZ JAHAAN E HASRAT MEN HAR IK BAAT ISHAARON MEN AB TO YE DIL E HUSHIYAAR KAHE जाने दो “ मुमताज़ ” मैं क्या हूँ , पागल हूँ , सौदाई हूँ मैं झूठी , मेरी बातें झूठी , मानो जो अग़यार कहे JAANE DO 'MUMTAZ', MAIN KYA HOON, PAAGAL HOON SAUDAAI HOON MAIN JHOOTI MERI BAA

ग़ज़ल - लम्हा लम्हा ज़िन्दगी का

मेरी ये ग़ज़ल उर्दू मैगज़ीन "इंशा" में छप कर मक़बूल हो चुकी है। ये ग़ज़ल आप लोगों के लिए पेश-ए-ख़िदमत है लम्हा लम्हा ज़िन्दगी का इक सज़ा होने लगा अब तो हर इक दर्द-ए-पैहम लादवा होने लगा LAMHA LAMHA ZINDAGI KA IK SAZAA HONE LAGA AB TO HAR  IK DARD E PAIHAM LADAVAA HONE LAGA रास्ते की जुस्तजू जब की तो मंज़िल मिल गई मंज़िलें ढूँढ़ीं तो रस्ता नारसा होने लगा RAASTE KI JUSTJU JAB KI TO MANZIL MIL GAI MANZILEN DHOONDIN TO RASTAA NARASAA HONE LAGA ऐ मोहब्बत तेरे इस एहसान का बस शुक्रिया अब तो तेरे नाम से भी ख़ौफ़ सा होने लगा AEY MOHABBAT TERE IS EHSAAN KA BAS SHUKRIYA AB TO TERE NAAM SE BHI KHAUF SA HONE LAGA करवटें लेता है दिल में फिर से इक तूफ़ान सा हम अभी मुश्किल से संभले थे , ये क्या होने लगा KARWATEN LETA HAI DIL MEN PHIR SE IK TOOFAAN SA HAM ABHI MUSHKIL SE SAMBHLE THE YE KYA HONE LAGA ये रबाब-ए-दिल तो इक मुद्दत हुई , ख़ामोश है क्यूँ ये साज़-ए-बेसदा नग़्मासरा होने लगा YE RABAAB E DIL TO IK MUDDAT HUI KHAAMOSH HAI KYUN YE SAAZ E BESADAA NAGHMA SA