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Showing posts from November 27, 2018

ज़ख़्म महरूमी का भरने से रहा

ज़ख़्म   महरूमी   का   भरने   से   रहा " कर्ब   का   सूरज   बिखरने   से   रहा" ज़ीस्त   ही   गुज़रे   तो   अब   गुज़रे   मियाँ वो   हसीं   पल   तो   गुज़रने   से   रहा खेलते   आए   हैं   हम   भी   जान   पर मुश्किलों   से   दिल   तो   डरने   से   रहा फ़ैसला   हम   ही   कोई   कर   लें   चलो वो   तो   ये   एहसान   करने   से   रहा पल   ख़ुशी   के   पर   लगा   कर   उड़   गए वक़्त   ही   ठहरा , ठहरने   से   रहा है   ग़नीमत   लम्हा   भर   की   भी   ख़ुशी अब   मुक़द्दर   तो   सँवरने   से   रहा जोश   की   गर्मी   से   पिघलेगा   क़फ़स अब   जुनूँ   घुट   घुट   के   मरने   से   रहा अब   ख़ता   "मुमताज़" उस   की   हो   तो   हो उस   पे   दिल   इलज़ाम   धरने   से   रहा कर्ब – दर्द , ज़ीस्त – ज़िन्दगी , क़फ़स – पिंजरा , जुनूँ – सनक zakhm mahroomi ka bharne se raha karb ka sooraj bikharne se raha zeest hi guzre to ab guzre miyaaN wo haseeN pal to guzarne se raha khelte aaye haiN ham bhi jaan par mushkiloN se dil to darne se raha