ज़िन्दगी कितनी सुबुकगाम हुई जाती है
ज़िन्दगी कितनी सुबुकगाम हुई जाती है दिन ढला जाता है और शाम हुई जाती है ख़ुद ब ख़ुद मौत की जानिब बढ़े जाते हैं क़दम देर ऐ गर्दिश-ए-अय्याम हुई जाती है छेड़ देता है तेरा ज़िक्र कोई कानों में और भी शाम गुलअंदाम हुई जाती है वक़्त कटता ही नहीं , कैसी भी कोशिश कर लें ज़िन्दगी कितनी ख़ुनकगाम हुई जाती है अपने होने को चलो हम कोई मानी दे दें मुफ़्त ये ज़िन्दगी गुमनाम हुई जाती है खौफ़ रुसवाई का हमको नहीं “ मुमताज़ ” मगर अब तो ये ज़िन्दगी दुश्नाम हुई जाती है सुबुकगाम – तेज़ रफ़्तार , जानिब – तरफ़ , गर्दिश-ए-अय्याम – दिनों का गुज़रना , गुलअंदाम – लाल , ख़ुनकगाम – धीमी , दुश्नाम – गाली