नज़्म – टूटी कश्ती
तेरा वादा भी इक क़यामत है ज़िंदगी मेरी कमनसीब रही टूट कर गिरता हुआ जैसे कि तारा कोई यूँ तेरे वादे से लिपटी हुई उम्मीदें हैं कश्तियाँ टूटी हैं टकरा के जिन जज़ीरों से मौत की अंधी बस्तियों के वो हमसाए हैं दिल के आईने की बिखरी हुई किरचों की चुभन है शादीद इतनी कि जलने लगा अब सारा बदन मेरे महबूब मेरे टीसते ज़ख़्मों की क़सम तेरे आने का गुमाँ होता है हर आहट पर जब हिला देती हैं ज़ंजीर हवाएँ दर की लौट आती है नज़र गश्त लगा कर मायूस और फिर अपनी उम्मीदों पे हंसी आती है नाख़ुदा मेरे कभी वक़्त अगर मिल जाए दो घड़ी मुझ को बताना तो सही टूटी कश्ती से समंदर को कैसे पार करूँ जज़ीरों से – द्वीपों से , हमसाए – पड़ोसी , नाख़ुदा – मल्लाह