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Showing posts from March 12, 2011

ग़ज़ल - इस दर्द की शिद्दत से गुज़र क्यूँ नहीं जाते

इस दर्द की शिद्दत से गुज़र क्यूँ नहीं जाते बरहक़ है अगर मौत तो मर क्यूँ नहीं जाते AB DARD KI SHIDDAT SE GUZAR KYUN NAHIN JAATE BAR HAQ HAI AGAR MAUT TO MAR KYUN NAHIN JAATE कब तक मैं संभालूँ ये मेरी ज़ात के टुकड़े रेज़े ये हर इक सिम्त बिखर क्यूँ नहीं जाते KAB TAK MAIN SAMBHALOON YE MERI ZAAT KE TUKDE REZE YE HAR IK SIMT BIKHAR KYUN NAHIN JAATE क़ातिल भी , गुनहगार भी , मुजरिम भी हमीं क्यूँ इल्ज़ाम किसी और के सर क्यूँ नहीं जाते QAATIL BHI GUNAHGAAR BHI MUJRIM BHI HAMEEN KYUN ILZAAM KISI AUR KE SAR KYUN NAHIN JAATE डरते हो तो अब तर्क-ए-इरादा भी तो कर लो हिम्मत है तो उस पार उतर क्यूँ नहीं जाते DARTE HO TO AB TARK E IRAADA BHI TO KAR DO HIMMAT HAI TO US PAAR UTAR KYUN NAHIN JAATE अब दर्द की शिद्दत भी मेरा इम्तेहाँ क्यूँ ले अब ज़ख़्म ये हालात के भर क्यूँ नहीं जाते AB DARD KI SHIDDAT BHI MERA IMTEHAAN KYUN LE AB ZAKHM YE HAALAT KE BHAR KYUN NAHIN JAATE ये सर्द तमन्नाएँ कहीं जान न ले लें एहसास के शो ’ लों से गुज़र क्यूँ नहीं जाते YE SARD TAMANN