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Showing posts from June 21, 2018

लौट जाएँगी ये लहरें, सीपियाँ रह जाएँगी

लौट जाएँगी ये लहरें , सीपियाँ रह जाएँगी वक़्त के हाथों में कुछ कठपुतलियाँ रह जाएँगी पासबानी शर्त है गुलशन की , वर्ना एक दिन इस फ़ज़ा में रक़्स करती आँधियाँ रह जाएँगी फिर जलाने को यहाँ बाक़ी रहेगा क्या भला जल चुकेगा जब चमन , बस बिजलियाँ रह जाएँगी सरफ़रोशी बढ़ चलेगी अपनी मंज़िल की तरफ़ और फिर लहरों पे जलती कश्तियाँ रह जाएँगी वक़्त है , अब भी संभल जा रहबर-ए-मिल्लत , कि फिर अपने हाथों में फ़क़त बदहालियाँ रह जाएँगी इन्क़िलाब आएगा , ये मोहरे उलट देंगे बिसात आप की शतरंज की सब बाज़ियाँ रह जाएँगी जब जिगर कि आग भड़केगी , पिघल जाएगा ज़ुल्म वो भी दिन आएगा , खुल कर बेड़ियाँ रह जाएँगी रिज़्क़ की ऐसी ही नाक़दरी रही , तो एक दिन दाने दाने को तरसती बालियाँ रह जाएँगी लौट भी आया अगर वो तो यहाँ क्या पाएगा इस चमन में जब बरहना डालियाँ रह जाएँगी एक बिस्तर ख़ाक का , और बस ये दो गज़ की जगह ये तेरी “ मुमताज़ ” सब तैयारियाँ रह जाएँगी

कई रंगीन सपने हैं, कई पैकर ख़याली हैं

कई   रंगीन   सपने   हैं ,      कई   पैकर   ख़याली     हैं मगर देखें , तो हाथ अपने हर इक हसरत से ख़ाली हैं चलो   देखें ,     हक़ीक़त   रंग   इन   में   कैसे भरती है तसव्वर   में   हजारों   हम ने   तस्वीरें   बना   ली   हैं मोहब्बत   का   दफ़ीना   जाने किस जानिब है पोशीदा हजारों   बार   हम ने   दिल   की   जागीरें   खंगाली   हैं कहाँ रक्खें इन्हें ,   इस चोर क़िस्मत से बचा कर अब गुजरते   वक़्त   से   दो चार   जो   ख़ुशियाँ चुरा ली हैं परस्तिश   आँधियों   की   अब हर इक सूरत ज़रूरी है तमन्नाओं   की   फिर इक बार जो शमएँ जला ली हैं हवा   भी   आ   न   पाए अब कभी इस ओर माज़ी की कि   अपने   दिल   के   चारों   सिम्त दीवारें उठा ली हैं बड़ा   चर्चा   है रहमत का ,   तो देखें , अब अता क्या हो मुक़द्दरसाज़     के     दर     पर   तमन्नाएँ   सवाली     हैं ज़रा   सा   चूक   जाते   हम   तो   ये हस्ती बिखर जाती बड़े   मोहतात   हो कर   हम ने   ये   किरचें   संभाली   हैं उम्मीदें   हम को   बहलाती   रहीं   लेकिन   यही   सच   है अभी   तक   तार   है   दामन ,   अभी   तक  

हज़ारों राह में कोहसार हाइल करती जाती है

हज़ारों राह में कोहसार हाइल करती जाती है मेरी तक़दीर मुझ को लम्हा लम्हा आज़माती है कभी मर मर के जीता है , कभी जीने को मरता है यहाँ इंसान को उस की ही हसरत खाए जाती है बशर मजबूरियों के हाथ में बस इक खिलौना है नज़ारे कैसे कैसे मुफ़लिसी हर सू दिखाती है कोई पीता है ग़म , कोई लहू इंसाँ का पीता है ग़रीबी सर पटकती है , सियासत मुस्कराती है न जाने कितने चेहरे ओढ़ कर अब लोग मिलते हैं यहाँ इंसान से इंसानियत नज़रें चुराती है शिकस्ता पा हैं लेकिन हौसला हारा नहीं हम ने चलो यारो , सदा दे कर हमें मंज़िल बुलाती है चराग़ाँ यूँ भी होते हैं हमारे रास्ते अक्सर तमन्ना हर क़दम पर सैकड़ों शमएँ जलाती है ये किसकी आहटें “ मुमताज़ ” मेरे साथ चलती हैं तजल्ली रेज़ा रेज़ा कौन सी ख़िरमन से आती है