Posts

Showing posts from March 22, 2017

ये तमाशा भी किसी दिन सर-ए-बाज़ार करूँ

ये तमाशा भी किसी दिन सर-ए-बाज़ार करूँ तेरी कमज़र्फ़ वफाओं को संगसार करूँ ऐ मेरे ज़हन पे छाए हुए रंगीन ख़याल सामने भी कभी आ जा कि तुझे प्यार करूँ बेहिसी वो कि तमन्नाओं का दम घुटता है अब किसी तौर तो इस ज़हन को बेदार करूँ चलना चाहूँ तो कोई सिम्त , कोई राह नहीं इस भरे ज़ीस्त के दलदल को कैसे पार करूँ अब घुटा जाता है दम दायरा-ए-हस्ती में हद से वहशत जो बढ़े , इसको भी अब तार करूँ इशरत-ए-रफ़्ता के रेशम का ये उलझा हुआ जाल इस को सुलझाने चलूँ , ख़ुद को गिरफ़्तार करूँ अब न वो यार , न एहबाब , न याद-ए-माज़ी ज़ीस्त की कौन सी सूरत दिल-ए-अग़यार करूँ बोझ हैं ज़हन पे गुज़रे हुए लम्हे अब तक बंद किस तरह से माज़ी का मैं अब ग़ार करूँ इन तमन्नाओं के “ मुमताज़ ” ये रेतीले महल गिर ही जाने हैं तो तामीर भी बेकार करूँ 

जब ये बेबस आरज़ूएँ हद से बाहर हो गईं

जब ये बेबस आरज़ूएँ हद से बाहर हो गईं ज़ुलमतों ने बाल खोले , चीख़ कर फिर रो पड़ीं आस्माँ का ये क़हर , ये ज़लज़ले की साअतें टूटे घर , गिरते शजर और रक़्स करती ये ज़मीं इस बरस बारान-ए-रहमत ऐसा बरसा टूट कर बह चुके हैं घर , शजर के साए में बैठे मकीं हुस्न की मग़रुरियत से कोई तो ये सच कहे दूर हक़ से तुझ को कर देगा फ़रेब-ए-आबगीं जब तसव्वर उसका इतनी आँच देता है तो फिर कैसी गुज़रे जो नज़र आए वो जल्वा आतिशीं जो ज़मीं बख़्शी है तू ने वो बहुत कमज़ोर है धँसती जाती है सतह , अब मैं कहाँ रक्खूँ जबीं तू ने भी क्या ख़ूब सीखा है यहाँ जीने का फ़न ज़ख़्म हैं “ मुमताज़ ” गुलरू , अश्क तेरे दिलनशीं ज़ुलमतों ने – अँधेरों ने , ज़लज़ले की साअतें – भूकंप की घड़ियाँ , शजर – पेड़ , रक़्स – नाच , बारान-ए-रहमत – रहमत की बारिश , मकीं – मकान में रहने वाले , हक़ – सच्चाई , आबगीं – शीशा , आतिशीं – जलता हुआ , जबीं – माथा , गुलरू – फूल से चेहरे वाले , दिलनशीं – दिल में बसने वाले 

आधे अधूरे इस रिश्ते का बोझ उठाएँ कब तक

आधे अधूरे इस रिश्ते का बोझ उठाएँ कब तक ये दिल तो नादान है इसको हम समझाएँ कब तक ये कह कर ख़ामोश हो गई इस दुनिया की हलचल इतनी लंबी रात में तेरा दिल बहलाएँ कब तक जाने कितनी शामें खोईं , कितनी रातें गुज़रीं हम घर की दहलीज़ पे आख़िर दीप जलाएँ कब तक मेरी राह अलग है और जुदा है राह तुम्हारी ऐसे में हम इक दूजे का साथ निभाएँ कब तक तश्नालबी तक़दीर है तेरी ऐ प्यासी तन्हाई अश्कों से “ मुमताज़ ” तेरी हम प्यास बुझाएँ कब तक 

वक़्त से टूटे हर इक लम्हे की तकरार हूँ मैं

वक़्त से टूटे हर इक लम्हे की तकरार हूँ मैं नाज़ है जिस पे मुक़द्दर को वो शहकार हूँ मैं अपनी हस्ती के लिए ख़ुद ही इक आज़ार हूँ मैं वक़्त के दोश पे रक्खा हुआ इक बार हूँ मैं क्या कहूँ कौन सी उलझन में गिरफ़्तार हूँ मैं कैसे कह दूँ कि तेरे हिज्र की बीमार हूँ मैं ये तमन्नाओं की महरूमी ये शब की वुसअत सो गई रात भी लेकिन अभी बेदार हूँ मैं क्या करूँ , क्या न करूँ , कैसे जियूँ , क्यूँ मैं जियूँ आजकल ऐसी ही उलझन से तो दोचार हूँ मैं क़ैद हूँ अपनी ही सोचों के क़वी हलक़े में अपनी ही राह में हाइल कोई कोहसार हूँ मैं ऐसा लगता है सराबों के परे है मंज़िल वक़्त के जलते हुए सहरा के इस पार हूँ मैं मस्लेहत कोश अज़ाबों के भरे दलदल में आरज़ूओं के हसीं ख़्वाब का इज़हार हूँ मैं पाँव बोझल हैं , बदन चूर थकन से “ मुमताज़ ” अपनी नाकाम तमन्नाओं से बेज़ार हूँ मैं तक़रार – दोहराव , आज़ार – बीमारी , दोश – कांधा , बार – बोझ , वुसअत – विस्तार , बेदार – जागना , क़वी – मज़बूत , हलक़े में – घेरे में , हाइल – अडा हुआ , कोहसार – पहाड़ , सराबों के परे – मरीचिकाओं के पीछे

अब जलन है, न कहीं शोर, न तन्हाई है

अब जलन है , न कहीं शोर , न तन्हाई है चार सू बजती हुई मौत की शहनाई है आज हर ख़्वाब-ए-परेशान से दिल बदज़न है और तबीयत भी तमन्नाओं से उकताई है याद रक्खूँ तो तुझे कौन सी सूरत रक्खूँ भूल जाने में तो कुछ और भी रुसवाई है आज फिर मैं ने मोहब्बत का भरम तोड़ दिया आज फिर उससे न मिलने की क़सम खाई है ज़हर पीते हैं तमन्नाओं की नाकामी का हम ने हर रोज़ जो मरने की सज़ा पाई है अब तो सौदा-ए-मोहब्बत का मदावा हो जाए अब तख़य्युल को भी ज़ंजीर तो पहनाई है हर तरफ़ आग है , हर सिम्त है नफ़रत का धुआँ कैसी मंज़िल पे मुझे आरज़ू ले आई है ख़्वाब में ही कभी आ जा कि मिटे दिल की जलन ज़िन्दगी अब भी तेरी दीद की शैदाई है हम को हर हाल में “ मुमताज़ ” सफ़र करना है जब तलक जिस्म में ख़ूँ , आँख में बीनाई है बदज़न – नाराज़ , सौदा-ए-मोहब्बत – मोहब्बत का पागलपन , मदावा – इलाज , तख़य्युल – ख़याल , दीद की – दर्शन की , शैदाई – चाहने वाला , बीनाई – देखने की क्षमता