ज़ब्त की हद से गुज़र कर जब तकानें आ गईं
ज़ब्त
की हद से गुज़र कर जब तकानें आ गईं
शम्स
की ज़द में बलन्दी की उड़ानें आ गईं
फिर
सफ़र में आज वो इक मोड़ ऐसा आ गया
याद
हमको कुछ पुरानी दास्तानें आ गईं
फिर
वही रंगीं ख़ताएँ, लज़्ज़त-ए-ईमाँशिकन
आज
फिर दाँतों तले अपनी ज़बानें आ गईं
इक
परिंदे ने अभी खोले ही थे उड़ने को पर
हाथ
में हर इक शिकारी के कमानें आ गईं
रंग
रौग़न से सजे बीमार चेहरों की क़तार
बिकती
है जिनमें मोहब्बत वो दुकानें आ गईं
हर
क़दम पर अपनी ही ख़ुद्दारियाँ हाइल रहीं
रास्ता
आसान था लेकिन चट्टानें आ गईं
फ़िक्र
बेटी की लिए इक बाप रुख़सत हो गया
ज़ुल्फ़
में चांदी, उठानों पर ढलानें आ गईं
बेहिसी
“मुमताज़” दौर-ए-मस्लेहत की देन है
ज़द
में माल-ओ-ज़र के अब इंसाँ की जानें आ गईं
ज़ब्त
–
सहनशीलता, तकानें – थकानें, शम्स – सूरज, ख़ताएँ – भूलें, लज़्ज़त-ए-ईमाँशिकन – ईमान
को तोड़ देने वाला मज़ा, हाइल – अडचन, माल-ओ-ज़र – दौलत और सोना
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