तखय्युल के फ़लक से कहकशाएँ हम जो लाते हैं
तखय्युल के फ़लक से कहकशाएँ हम जो लाते हैं सितारे खैर मकदम के लिए आँखें बिछाते हैं ज़मीरों में लगी है ज़ंग , ज़हन -ओ -दिल मुकफ़्फ़ल हैं जो खुद मुर्दा हैं , जीने की अदा हम को सिखाते हैं मेरी तन्हाई के दर पर ये दस्तक कौन देता है मेरी तीरा शबी में किस के साये सरसराते हैं हक़ीक़त से अगरचे कर लिया है हम ने समझौता हिसार -ए -ख्वाब में बेकस इरादे कसमसाते हैं मज़ा तो खूब देती है ये रौनक बज़्म की लेकिन मेरी तन्हाइयों के दायरे मुझ को बुलाते हैं बिलकती चीखती यादें लिपट जाती हैं कदमों से हजारों कोशिशें कर के उसे जब भी भुलाते हैं वो लम्हे , जो कभी हासिल रहे थे ज़िंदगानी का वो लम्हे आज भी "मुमताज़ " हम को खूँ रुलाते हैं takhayyul ke falak se kahkashaaeN am jo laate haiN sitaare khair maqdam ke liye aankheN bichhaate haiN zameeroN meN lagi hai zang,