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Showing posts from May 7, 2018

नज़्म - न जाने कौन है

न जाने कौन है वो अजनबी वो हमनवा मेरा न जाने कब से इक एहसास बन कर आ गया है वो खयाल-ओ-ख़्वाब पर , जह्न-ओ-तबअ पर छा गया है वो कभी सरगोशियों में धड़कनों की लय सुनाता है कभी चुपके से इक उल्फ़त का नग़्मा गुनगुनाता है ख़ुमारी झाँकती रहती है बहकी बहकी साँसों से कभी साँसें महक उठती हैं उसकी महकी साँसों से कभी उसके लबों का लम्स छू लेता है गालों को चुना करती हैं आँखें उसकी नज़रों के उजालों को न जाने कौन है , किस की इबादत करती रहती हूँ किसी एहसास के पैकर से उल्फ़त करती रहती हूँ मेरे जज़्बे की धड़कन है , मेरी उल्फ़त का दिल है वो तसव्वर है , तख़य्युल है , सराब-ए-मुस्तक़िल है वो न जाने कौन है वो अजनबी वो हमनवा मेरा

मुझ में क्या तेरे तसव्वर के सिवा रह जाएगा

मुझ में क्या तेरे तसव्वर के सिवा रह जाएगा सर्द सा इक रंग फैला जा ब जा रह जाएगा कर तो लूँ तर्क-ए-मोहब्बत लेकिन उस के बाद भी कुछ अधूरी ख़्वाहिशों का सिलसिला रह जाएगा कारवाँ तो खो भी जाएगा ग़ुबार-ए-राह में दूर तक फैला हुआ इक रास्ता रह जाएगा टूट जाएँगी उम्मीदें , पस्त होंगे हौसले एक तन्हा आदमी बे दस्त-ओ-पा रह जाएगा मैं अगर अपनी ख़मोशी को अता कर दूँ ज़ुबाँ हैरतों के दायरों में तू घिरा रह जाएगा अपना सब कुछ खो के पाया है तुझे “ मुमताज़ ” ने खो गया तू भी तो मेरे पास क्या रह जाएगा

नज़्म पार्ट 2 - यास

मैं तेरी मुन्तज़िर ता उम्र जानां रह भी सकती थी हर इक रंज ओ अलम हर इक मुसीबत सह भी सकती थी तेरे बस इक इशारे पर मुझे मरना गवारा था तेरा बस इक इशारा , जो मेरे दिल का सहारा था रिहाई हो चुकी , लेकिन अभी ज़ंजीर बाक़ी है शिकस्ता हो चुका सपना , मगर ताबीर बाक़ी है तसव्वुर की ज़मीं पर अब नई फ़स्लें उगाना है अभी है जुस्तजू अपनी , अभी तो ख़ुद को पाना है धड़कती ज़िन्दगी की लय अभी ख़ामोश करती हूँ अभी तस्वीर ए हस्ती में नए कुछ रंग भरती हूँ   ये बिखरी किरचें दिल की तो उठा लूं , फिर ज़रा दम लूं ज़रा ज़ख्मों को ख़ुश सूरत बना लूं , फिर ज़रा दम लूं ज़रा इन शबनमी यादों के क़तरों को सुखा डालूँ ज़िबह कर लूं ज़रा उम्मीद को , हसरत को दफ़ना लूं उम्मीदों के सरों से अब नई लडियां बनाउँगी मैं अपने ज़हन के खद्शात को अब आज़माऊँगी   मुझे अब जीतनी ही है , हर इक हारी हुई बाज़ी बहुत अब हो गईं ये मन्तकें , ये झूटी लफ्फाज़ी ज़िबह करना-सर काटना

नज़्म पार्ट 1 - उम्मीद

मैं तेरी मुन्तज़िर ता उम्र जानाँ रह भी सकती हूँ हर इक रंज ओ अलम , हर इक मुसीबत सह भी सकती हूँ है इस में ज़िन्दगी , मुझ को ये मरना भी गवारा है तुम्हारी इक नज़र जानां , मेरे दिल का सहारा है रिहा हो कर तुम्हारी क़ैद से आख़िर कहाँ जाऊं तुम्हारा साथ हो , तो आसमाँ धरती पे ले आऊं तसव्वुर की ज़मीं का गोशा गोशा तुम ने घेरा है तुम्हारे रास्ते की ख़ाक में मेरा बसेरा है बुझाऊं जितना , आतिश इश्क़ की उतना भड़कती है तुम्हारी जुस्तजू में ज़िंदगी जानां , धड़कती है मेरी राहों में ता हद्द ए नज़र उल्फ़त ही उल्फ़त है बताऊँ क्या , तुम्हारे हिज्र में भी कैसी लज़्ज़त है जुबां से शबनमी यादों के क़तरे चाट लेती हूँ ये घड़ियाँ हिज्र की , उम्मीद से मैं काट लेती हूँ मगर उम्मीद की लड़ियों के मोती बिखरे जाते हैं कि दिल में गूंजते खद्शात मुझ को आज़माते हैं मुक़द्दर से ये दिल अब के दफ़ा जो जंग हारा है तमन्ना रेज़ा रेज़ा है , मोहब्बत पारा पारा है मगर फिर सोचती हूँ , मात इन हालात की होगी सहर भी कोई तो आख़िर अँधेरी रात की होगी कभी कोई किरन सूरज का भी पैग़ाम लाएगी तजल्ली भी कभी त