आँख पर पहरा, ज़ुबानों पे लगा ताला है
आँख
पर पहरा, ज़ुबानों पे लगा ताला है
बाग़बाँ
ने ये चमन ख़ुद ही जला डाला है
दिल
ने दामन में अँधेरों को सदा पाला है
रात
तो रात, सवेरा भी अभी काला है
रंग
तक़दीर का अपनी जो ज़रा काला है
रौशनी
के लिए हमने भी ये दिल बाला है
मिन्नतें
की हैं, दिया है ज़रा बहलावा भी
कैसी
हिकमत से तमन्ना को अभी टाला है
दर्द
रह रह के उठा करता है दिल में अब भी
टीसता
रहता है, दिल पर जो पड़ा छाला है
कितने
अरमानों से हमने जो सजाया था कभी
आरज़ू
का वो नगर आज तह-ओ-बाला है
हमने
“मुमताज़” नई राह पे चलने के लिए
इक
नई शक्ल में अब रूह को फिर ढाला है
तह-ओ-बाला
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