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Showing posts from August 31, 2019

इक एक कर के टूट गईं निस्बतें तमाम

इक एक कर के टूट गईं निस्बतें तमाम आओ , तो फिर फ़साना भी ये अब करें तमाम ये कौन सा मक़ाम रिफ़ाक़त का है , जहाँ गुम फ़ासलों में होने लगीं क़ुर्बतें तमाम ज़ंजीर कोई रोक न पाएगी अब हमें अब के जुनून तोड़ चुका है हदें तमाम मज़लूम भी हमीं हैं , ख़तावार भी हमीं रख दो हमारी जान पे ही तोहमतें तमाम यादों की सरज़मीं पे वो तूफाँ उठा , कि बस इक एक कर के खुलने लगी हैं तहें तमाम आईने में जो ख़ुद से मुलाक़ात मैं करूँ क़िस्से हज़ार कहती रहें सलवटें तमाम दे कर गया है कर्ब - ओ - अज़ीयत हज़ारहा नज़राना लें ही क्यूँ , उसे लौटा न दें तमाम ? फलते रहेंगे फिर भी मोहब्बत के कुछ शजर " हालांकि वक़्त खोद चुका है जड़ें तमाम " जिस पर पड़े वो जाने कि होता है दर्द क्या " मुमताज़ " रहने दीजिये ये मंतकें तमाम   निस्बतें – संबंध , तमाम – सब , तमाम – ख़त्म , फ़साना – कहानी , रिफ़ाक़त – साथ , क़ुर्बतें – नज़दीकियाँ , मज़लूम – पीड़ित , ख़तावार – अपराधी ,