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Showing posts from August 20, 2018

ऐसे मरकज़ प है ख़ूँख़्वारी अब इन्सानों की

ऐसे मरकज़ प है ख़ूँख़्वारी अब इन्सानों की अब भला क्या है ज़रूरत यहाँ शैतानों की बेड़ियाँ चीख़ उठीं यूँ कि जुनूँ जाग उठा हिल गईं आज तो दीवारें भी ज़िंदानों की उन निगाहों की शरारत का ख़ुदा हाफ़िज़ है लूट लें झुक के ज़रा आबरू मैख़ानों की हम ने घबरा के जो आबाद किया है इन को आज रौनक़ है सिवा देख लो वीरानों की ख़ून से लिक्खी गई है ये मोहब्बत की किताब कितनी दिलचस्प इबारत है इन अफ़सानों की अपनी क़िस्मत का भरम रखने को हम तो “ मुमताज़ ” लाश काँधों पे लिए फिरते हैं अरमानों की

अक्स से अपने नज़र अब मैं मिलाऊं कैसे

अक्स   से   अपने   नज़र   अब   मैं   मिलाऊं   कैसे सर   पे   ये   बार   ए निदामत   मैं   उठाऊं   कैसे बोझ   हो   जाता   है   इंसान   को   ख़ुद   अपना   वजूद टूटे   कांधों   पे   ये   अब   बोझ   उठाऊं   कैसे क्या   ख़बर   वक़्त   के   कोहरे   में   छुपा   क्या   होगा अंधी   तक़दीर   पे   सरमाया   लुटाऊं   कैसे भूल   बैठी   है   मेरी   ज़िन्दगी   हंसने   का   हुनर मुस्कराने   का   इसे   ढंग   सिखाऊं   कैसे लिख   तो   दूं   कोई   नई दास्ताँ   दिल   पे   लेकिन नाम   जो   लिक्खा   है   अब   तक   वो   मिटाऊं   कैसे मसलेहत   समझे   कोई   और   न   कोई   बात   सुने ऐसी   मुंहज़ोर   तमन्ना   से   निभाऊं   कैसे एक   उम्मीद   की   ज़ंजीर   क़दम   थामे   है उठ   के   जाऊं   तो   तेरे   दर   से   मैं   जाऊं   कैसे जब   तलक   सांस   है , रिश्तों   को   तो   ढोना   है   मगर " बात   ये   घर   की   है , बाज़ार   में   लाऊं   कैसे " दिल   में   जो   आग   सी   ' मुमताज़ ' जला   करती   थी बुझने   वाली   है , इसे   अब  

इस गरानी से मैं अल्लाह निभाऊं कैसे

इस   गरानी   से   मैं   अल्लाह   निभाऊं   कैसे पेट   की   आतिश   ए   नमरूद   बुझाऊं   कैसे ये   सबक़   सीख   रही   है   अभी   नौख़ेज़   दुल्हन एहल   ए   ससुराल   को   उँगली पे   नचाऊं   कैसे ले   गया   वक़्त   मुआ   साथ   मेरी   बत्तीसी है   जो   बिरयानी   में   बोटी ... वो   चबाऊं कैसे इस   तरह   उठती   है , बर्दाश्त   नहीं   होती   है अब   भरी   बज़्म   में   मैं   पीठ   खुजाऊं   कैसे اس   گرانی   سے   میں   الله   نبھاؤں   کیسے پیٹ   کی   آتش_نمرود   بجھاوں   کیسے یہ   سبق   سیکھ   رہی   ہے   ابھی   نوخیز   دلہن اہل_سسرال   کو   انگلی   پہ   نچاؤں   کیسے لے   گیا   ساتھ   میں   یہ   وقت   موا   بتیسی ہے   جو   بریانی   میں   بوٹی ... وہ   چباؤں    کیسے اس   طرح   اٹھتی   ہے , برداشت   نہیں   ہوتی   ہے اب   بھری   بزم   میں   میں   پیٹھ   خجاؤں   کیسے

कोई तो ऐसा इन्क़लाब आए

कोई तो ऐसा इन्क़लाब आए हर अज़ीयत का अब जवाब आए काम आती हैं ख़ूब आँखें भी बात करने में जब हिजाब आए जाने किस रोग की अलामत है जागती आँखों में भी ख़्वाब आए वो नज़र भर के देख ले जब भी बारहा लौट कर शबाब आए हम ख़िज़ाँ से क़दम मिला के चलें वो बहारों के हमरक़ाब आए चल दिया जब वो फेर कर नज़रें एक लम्हे में सौ अज़ाब आए नश्शा महफ़िल प क्यूँ न तारी हो जब कि साग़र ब कफ़ शराब आए हो गया है अज़ाब जीना भी ऐसे दिन भी कभी ख़राब आए आफ़रीं है हमारी ज़िन्दा दिली आए दिल पर जो अब अज़ाब आए तेरी महफ़िल से ऐ सितम परवर ले के “मुमताज़” इज़्तिराब आए