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Showing posts from June 10, 2018

धड़कनें चुभने लगी हैं, दिल में कितना दर्द है

धड़कनें चुभने लगी हैं , दिल में कितना दर्द है टूटते दिल की सदा भी आज कितनी सर्द है बेबसी के ख़ून से धोना पड़ेगा अब इसे वक़्त के रुख़ पर जमी जो बेहिसी की गर्द है बोझ फ़ितनासाज़ियों का ढो रहे हैं कब से हम जिस की पाई है सज़ा हम ने , गुनह नाकर्द है ज़ब्त की लू से ज़मीं की हसरतें कुम्हला गईं धूप की शिद्दत से चेहरा हर शजर का ज़र्द है छीन ले फ़ितनागरों के हाथ से सब मशअलें इन दहकती बस्तियों में क्या कोई भी मर्द है ? दिल में रौशन शोला - ए - एहसास कब का बुझ गया हसरतें ख़ामोश हैं , अब तो लहू भी सर्द है अब कहाँ जाएँ तमन्नाओं की गठरी ले के हम हर कोई दुश्मन हुआ है , मुनहरिफ़ हर फ़र्द है जुस्तजू कैसी है , किस शय की है मुझ को आरज़ू मुस्तक़िल बेचैन रखता है , जुनूँ बेदर्द है   ऐसा लगता है कि सदियों से ये दिल वीरान है आरज़ूओं पर जमी " मुमताज़ " कैसी गर्द है     

कभी तो होगा उसपर भी असर, आहिस्ता-आहिस्ता

कभी तो होगा उसपर भी असर , आहिस्ता - आहिस्ता तुलू होगी अंधेरे से सहर.... आहिस्ता..... आहिस्ता हमारी बेख़ुदी जाने कहाँ ले जाए अब हम को किधर जाना था , चल निकले किधर , आहिस्ता आहिस्ता लगी है ख़ाक उड़ने , अब ज़मीन-ए-दिल में सहरा है लगे हैं सूखने सारे शजर , आहिस्ता....आहिस्ता.... उभरता है नियाज़-ए-शौक़ अब तो बेनियाज़ी से दुआ जाने लगी है अर्श पर आहिस्ता आहिस्ता मोहब्बत अब मुसलसल दर्द में तब्दील होती है बना जाता है शो ’ ला इक शरर आहिस्ता आहिस्ता चला ले तीर जितने तेरे तरकश में हैं ऐ क़ातिल मेरे सीने पे लेकिन वार कर आहिस्ता आहिस्ता लहू दिल का पिला कर पालते हैं फ़न की कोंपल को ये पौधा बन ही जाएगा शजर आहिस्ता आहिस्ता क़दम उठते हैं लेकिन रास्ता तय ही नहीं होता “ कि हरकत तेज़ तर है और सफ़र आहिस्ता आहिस्ता ” अगर है जुस्तजू तुझ को मोहब्बत के ख़ज़ाने की तो फिर “ मुमताज़ ” धड़कन में उतर आहिस्ता आहिस्ता