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Showing posts from March 30, 2017

हमसफ़र खो गए

हमसफ़र खो गए ज़िन्दगी की सुहानी सी वो रहगुज़र साथ साथ आ रहे थे मेरे वो मगर आज जाने हुआ क्या , मुझे छोड़ कर हाथ मुझ से छुड़ा कर वो गुम हो गए मैं भटकती रही जुस्तजू में यहाँ और रोती रहीं मेरी तन्हाइयाँ पर चट्टानों से टकरा के लौट आई जब टूटते दिल के टुकड़ों की ज़ख़्मी सदा ज़िन्दगी की सुहानी सी वो रहगुज़र एक तीराशबी का सफ़र हो गई रौशनी के सभी शहर गुम हो गए और मैं एक मुर्दा खंडर हो गई ऐ मेरे हमसफ़र मेरी खोई हुई राह के राहबर देख ले , मैं अकेली हूँ इस मोड़ पर और मेरे लिए आज हर इक सफ़र इन अँधेरों का लंबा सफ़र हो गया  

गर तसव्वर तेरा नहीं होता

गर तसव्वर तेरा नहीं होता दिल ये ग़ार-ए-हिरा नहीं होता एक दिल , एक तसव्वर तेरा बस कोई तीसरा नहीं होता पास-ए-माज़ी ज़रा जो रख लेते वो नज़र से गिरा नहीं होता होता वो मस्लेहत शनास अगर हादसों से घिरा नहीं होता ये तो हालात की नवाज़िश है कोई क़स्दन बुरा नहीं होता दिल को आ जाती थोड़ी अक़्ल अगर आरज़ू से भरा नहीं होता गुलशन-ए-दिल उजड़ के ऐ “ मुमताज़ ” फिर कभी भी हरा नहीं होता 

ये क्या कि अब तो दर्द भी दिल में नहीं रहा

ये क्या कि अब तो दर्द भी दिल में नहीं रहा ये कौन सा मक़ाम मोहब्बत में आ गया बेहिस हुई उम्मीद , तमन्नाएँ मर चुकीं इक ज़ख़्म-ए-ज़िन्दगी था सो वो भी नहीं रहा यूँ तो तमाम हो ही चुकीं बाग़ी हसरतें फिर भी कहीं है रूह में इक शोर सा बपा लगता है इख़्तेताम पे आ पहुंचा है सफ़र बोझल है जिस्म , कुंद नज़र , दिल थका थका माज़ी की धूल छाई है दिल के चहार सू दिन तो चढ़ आया , आज ये कोहरा नहीं छँटा “ मुमताज़ ” इस ख़ुलूस ने क्या क्या किया है ख़्वार इस लाइलाज रोग की क्या कीजिये दवा

वो तेवर क्या हुए तेरे, कहाँ वो नाज़ ए पिन्दारी

वो तेवर क्या हुए तेरे , कहाँ वो नाज़ ए पिन्दारी न वो जलवा , न वो हस्ती , न वो तेज़ी , न तर्रारी मिटा डालेगा तुझ को ये तेरा अंदाज़ ए सरशारी कहीं का भी न छोड़ेगी तुझे तेरी ये ख़ुद्दारी वही दिन हैं , वही रातें , वही रातों की बेदारी वही बेहिस तमन्ना , फिर वही हर ग़म से बेज़ारी न आया अब तलक ये एक फ़न हम को छलावे का लगावट की सभी बातें , मोहब्बत की अदाकारी ये शिद्दत बेक़रारी की , ये ज़ख़्मी आरज़ू दिल की कटीं यूँ तो कई रातें , मगर ये रात है भारी हक़ीक़त है , मगर फिर भी ज़माना भूल जाता है जला देती है हस्ती को मोहब्बत की ये चिंगारी ये दुनिया है , यहाँ है चार सू बातिल का हंगामा छुपाती फिर रही है मुंह यहाँ सच्चाई बेचारी मोहब्बत बिकती है , फ़न बिकता है , बिकती है सच्चाई ये वो दौर ए तिजारत है , के है हर फर्द ब्योपारी ग़रज़ , मतलब परस्ती , बेहिसी , " मुमताज़" बेदीनी वतन को खाए जाती है यही मतलब की बीमारी नाज़ ए पिन्दारी-गर्व के नखरे , अंदाज़ ए सरशारी- मस्ती का अंदाज़ , बेदारी-जागना , बेहिस तमन्ना-बेएहसास इच्छा , बेज़ारी- ऊब , फ़न-कला , अदाकारी-अभ

ज़िन्दगी का हर इरादा कैसा फ़ितनाकाम है

ज़िन्दगी का हर इरादा कैसा फ़ितनाकाम है पेशतर नज़रों के हस्ती का हसीं अंजाम है खो गए जाने कहाँ वो क़ाफ़िले , और अब तो बस एक हम हैं , इक हमारी ज़िन्दगी की शाम है ख़ाली दिल , ख़ाली उम्मीदें , ख़ाली दामन , ख़ाली हाथ एक सरमाया हमारा ये ख़याल-ए-ख़ाम है बेरुख़ी , नफ़रत , अदावत , हर अदा उनकी बहक़ हम ने पाला है अना को हम पे ये इल्ज़ाम है ये जहान-ए-आरज़ू अपने लिए बेकार है हमको तो अपनी इसी बस बेख़ुदी से काम है एक हल्की सी शरारत , एक मीठा सा सुकूँ लम्हा भर का ये सफ़र इस ज़ीस्त का इनआम है बढ़ चले हैं मंज़िलों की सिम्त फिर अपने क़दम दूर मुँह ढाँपे खड़ी वो गर्दिश-ए-अय्याम है चार पल में कर चलें “ मुमताज़ ” कुछ कारीगरी लम्हा लम्हा ज़िन्दगी का मौत का पैग़ाम है ख़याल-ए-ख़ाम – झूठा ख़याल , बहक़ – जायज़