Posts

Showing posts from April 1, 2017

नया आग़ाज़

रतजगे चुभने लगे जब मेरी इन आँखों में मैं ने रातों के अँधेरों को वहीं छोड़ दिया रास आया न मुझे जब ये सराबों का सफ़र मैं ने तक़दीर के हर पेच का रुख़ मोड़ दिया अब जलन है न कहीं शोर न तन्हाई है दूर तक एक नज़ारा है घनी छाँओं का हद्द-ए-बीनाई तलक सामने हरियाली है हिम्मतें लेती हैं बोसा मेरे इक पाँओं का जाग उठीं हसरतें , अरमानों ने अंगड़ाई ली मुद्दतों बाद जो बेजानों ने अंगड़ाई ली छोड़ कर माज़ी-ए-ज़र्रीं की सुनहरी यादें एक अंजान मुसाफ़त पे निकल आई हूँ सराबों का – मरीचिकाओं का , हद्द-ए-बीनाई – दृष्टि की सीमा , बोसा – चुंबन , माज़ी-ए-ज़र्रीं – सुनहरा अतीत , मुसाफ़त – सफ़र 

उट्ठी जो आह दिल पे जमी बर्फ़ तोड़ कर

उट्ठी जो आह दिल पे जमी बर्फ़ तोड़ कर शिरियानों से ले आई लहू तक निचोड़ कर क़िस्मत के ये शिगाफ़ भरे जाएँ किस तरह देखा है उसके दर पे जबीं को भी फोड़ कर तेरे करम की आस में कब से हैं मुन्तज़िर आ सामने कि चूम लें कदमों को दौड़ कर रक्खा है बार बार भरम इल्तेफ़ात का बिखरी हुई वजूद की किरचों को जोड़ कर जाने ये किसकी मात थी , किसको मिली सज़ा सायों से इंतेक़ाम लिया धूप ओढ़ कर इस रहबरी में क्या कहें कैसे थे मज़्मरात हम साथ साथ चलते रहे मुंह को मोड़ कर इस तल्ख़ी-ए-हयात की शिद्दत न पूछिए “ मुमताज़ ” रख दिया है कलेजा मरोड़ कर शिरियानों से - नसों से ,  शिगाफ़ – दरार , जबीं – माथा , मुन्तज़िर – प्रतीक्षारत , इल्तेफ़ात – मेहरबानी , मज़्मरात – रहस्य 

आँख पर पहरा, ज़ुबानों पे लगा ताला है

आँख पर पहरा , ज़ुबानों पे लगा ताला है बाग़बाँ ने ये चमन ख़ुद ही जला डाला है दिल ने दामन में अँधेरों को सदा पाला है रात तो रात , सवेरा भी अभी काला है रंग तक़दीर का अपनी जो ज़रा काला है रौशनी के लिए हमने भी ये दिल बाला है मिन्नतें की हैं , दिया है ज़रा बहलावा भी कैसी हिकमत से तमन्ना को अभी टाला है दर्द रह रह के उठा करता है दिल में अब भी टीसता रहता है , दिल पर जो पड़ा छाला है कितने अरमानों से हमने जो सजाया था कभी आरज़ू का वो नगर आज तह-ओ-बाला है हमने “ मुमताज़ ” नई राह पे चलने के लिए इक नई शक्ल में अब रूह को फिर ढाला है तह-ओ-बाला – ऊपर नीचे 

धुँधला धुँधला सा हर नज़ारा है

धुँधला धुँधला सा हर नज़ारा है जाने क़िस्मत का क्या इशारा है जल गई है तमामतर हस्ती दिल है सीने में या शरारा है उससे भागूँ भी , उसको चाहूँ भी दुश्मन-ए-जाँ है फिर भी प्यारा है ग़म में , तन्हाइयों में , वहशत में हम ने अक्सर उसे पुकारा है एक मैं , एक तसव्वर तेरा अब तो दिल का यही सहारा है जाने अंजाम आगे क्या होगा दिल अभी से जो पारा पारा है हमने “ मुमताज़ ” उनके जलवों से अपनी तक़दीर को सँवारा है