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Showing posts from July 20, 2018

है इंतज़ार अना को, मगर नहीं होता

है इंतज़ार अना को , मगर नहीं होता कोई भी दाँव कभी कारगर नहीं होता। हक़ीक़तें कभी आँखों से छुप भी सकती हैं हर एक अहल-ए-नज़र दीदावर नहीं होता गुनह से बच के गुज़र जाना जिस को आ जाता तो फिर फ़रिश्ता वो होता , बशर नहीं होता हज़ार बार ख़िज़ाँ आई दिल के गुलशन में ये आरज़ू का शजर बेसमर नहीं होता हयात लम्हा ब लम्हा गुज़रती जाती है हयात का वही लम्हा बसर नहीं होता बिसात-ए-हक़ प गुमाँ की न खेलिए बाज़ी यक़ीं की राह से शक का गुज़र नहीं होता बचा भी क्या है मेरी ज़ात के ख़ज़ाने में कि बेनवाओं को लुटने का डर नहीं होता भटकते फिरते हैं “ मुमताज़ ” हम से ख़ानाबदोश हर एक शख़्स की क़िस्मत में घर नहीं होता

दिल की महरूमी फ़िज़ा में जो भर गई होगी

दिल की महरूमी फ़िज़ा में जो भर गई होगी रात अपनी ही सियाही से डर गई होगी कैसे आते भी नज़र ज़ेर-ओ-बम ज़माने के ख़्वाब की धुंद निगाहों में भर गई होगी छोड़ आई थी उसे मैं प ज़िन्दगी फिर भी जुस्तजू में तो मेरी दर ब दर गई होगी क़तरे क़तरे को तरसती वो प्यास उकता कर सब्र का पी के पियाला वो मर गई होगी छोड़ दी होगी उसी राह पे पहचान मेरी ज़िन्दगी मुझ पे ये अहसान कर गई होगी जिस को देखा ही नहीं हम ने ख़ुदपरस्ती में दूर तक साथ वही चश्म-ए-तर गई होगी तुम को कतरा के गुज़र जाने का फ़न आता था आख़िरश सारी ख़ता मेरे सर गई होगी मैं ने दिल तक की हर इक राह बंद कर दी थी सोचती हूँ कि तमन्ना किधर गई होगी वक़्त ने तोड़ दिया होगा ग़ुरूर-ए-हस्ती मेरी “ मुमताज़ ” वो ग़ैरत भी मर गई होगी

यास की मलगुजी परतों से तमन्ना का ज़हूर

यास की मलगुजी परतों से तमन्ना का ज़हूर याद ने तोड़ दिया होगा अना का भी ग़ुरूर ज़ह्न से पोंछ दिया उस का हर इक नक़्श-ओ-निगार आख़िरश कर ही लिया आज ये दरिया भी उबूर राहज़न वक़्त ने बहका के हमें लूट लिया न मोहब्बत की ख़ता थी , न जफ़ाओं का क़ुसूर फिर कहीं ऐसा न हो , तेरी ज़रूरत न रहे फिर न इस सर से उतर जाए रिफ़ाक़त का सुरूर तीरगी फैल गई फिर से निगाहों में कि बस एक लम्हे को हुआ दिल में तमन्ना का ज़हूर तालिब-ए-ज़ौक़-ए-समाअत है हमारी भी सदा एक फरियाद लिए आए हैं हम तेरे हुज़ूर आज फिर हिर्स से दानाई ने खाई है शिकस्त जाल में फिर से फ़रेबों के उतर आए तुयूर इस नई नस्ल की क़दरों का ख़ुदा हाफ़िज़ है कोई बीनाई का ढब है न समाअत का शऊर वो सुने या न सुने , बोझ तो हट जाएगा आज “ मुमताज़ ” उसे हाल तो कहना है ज़रूर