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Showing posts from June 17, 2018

आँखें झुका के और कभी मुँह फुला के हम

आँखें झुका के और कभी मुँह फुला के हम सहते हैं कैसे कैसे सितम दिलरुबा के हम करना भी चाहें बात , अकड़ना भी चाहें वो मुश्किल से रोकते हैं हँसी मुँह दबा के हम खाता है बैठे बैठे निकम्मा दबा के माल पछताए सौ हज़ार उसे मुँह लगा के हम पूछी हमारे इश्क़ की उस ने जो इंतेहा बस सोचते ही रह गए सर को खुजा के हम चूना लगाने वालों में माहिर जो थे “ मुमताज़ ” आज आ गए हैं उन को भी चूना लगा के हम

यूँ निकले गरानी में कुछ अरमान वग़ैरह

यूँ निकले गरानी में कुछ अरमान वग़ैरह आफ़त में फँसी ख़ूब मेरी जान वग़ैरह क्या धंधा कबाड़ी का शुरू करने चले हो ? भर रखा है क्यूँ घर में ये सामान वग़ैरह कुछ फूटो तो मुँह से कि कहाँ रात रहे थे खाया है मियाँ दहन में क्या पान वग़ैरह पूछूँ तो भला कैसे कि कब तक ये टिकेंगे आए हैं मेरे घर में जो मेहमान वग़ैरह निकला है मियाँ इश्क़ में ऐसा भी नतीजा मुँह में न रहे एक भी दन्दान वग़ैरह मेदे पे दिखाएगी ये कल अपना असर भी खाई है अभी दाब के जो रान वग़ैरह तोहफ़े में हसीना को दिया गोभी का इक फूल आशिक़ के ख़ता रहते हैं औसान वग़ैरह बूढ़ा हो कि बूढ़ी हो ज़रा मुर्ग़ा हो तगड़ा खोले हैं कई इश्क़ की दूकान वग़ैरह रमज़ान गया बीत , रिहा हो गए “ मुमताज़ ” अब तक जो रहे क़ैद वो शैतान वग़ैरह

माज़ी की गलियाँ

कल माज़ी की गलियों में भटकते भटकते अचानक मेरी मुलाक़ात ख़ुद से हो गई। बरसों के बिछड़े थे....मिले तो आँखें भर आईं। न जाने कितनी ही यादें ज़हन के झरोखों से निकल कर पलकों की शाख़ों पर आ बैठीं। दिल पर वो बारिशें एक बार फिर बरस गईं जिन की बौछारों में तन के साथ साथ मन भी भीग जाया करता था। सुरमंडल के तारों को छेड़ते हुए दिल जब झूम उठता था तो गीत ख़ुद ब ख़ुद होंटों पर मचल जाते थे। सफ़र शुरू हुआ तो माज़ी के तमाम गलियारों की सैर कर आई मैं..... बचपन के तमाम संगी साथी एक एक कर के दिल पर दस्तक देते रहे....दुनिया जहान की फ़िक्र से आज़ाद , अपनी ही मस्ती में मस्त , अपने ही ख़यालों में गुम वो लड़की , ब्रुश , क़लम और संगीत जिस के हर लम्हे के साथी थे....आज ज़िंदगी की जाने किस क़ब्र से निकल कर सामने आ खड़ी हुई.....और मैं हैरत ज़दा सी उस में ख़ुद को तलाश करती रही.....और जब नज़ारा धुँधला होता गया तब एहसास हुआ , जाने कब मेरी आँखों में अशकों के दो क़तरे तैर आए थे.....और फिर देखते ही देखते वो माज़ी के अँधेरों में   ग़र्क़ होती चली गई...... अब सोच रही हूँ.....यह कैसा ख़्वाब था , आईने के सामने खड़ी अपने अक्स में उस लड़की को त

नज़्म - गुजारिश

न जाने कितनी बातें तुम से कहना चाहती हूँ मैं न जाने कितने अंदेशे तुम्हारे दिल में भी होंगे तुम्हारी धड़कनों में छुप के रहना चाहती हूँ मैं तुम्हारी आँख में भी ख़्वाब अब तक तो यही होंगे मगर अब वक़्त बदला है , कहाँ वो रात दिन जानाँ हमारे दरमियाँ अब कितनी ही सदियों की दूरी है नई राहें , नए मंज़र , नया है ये सफ़र जानाँ तो हसरत को नया इक पैरहन देना ज़रूरी है अभी भी ज़ह्न पर माना तेरी चाहत का डेरा है हक़ीक़त है , तेरी यादें मुझे बेचैन करती हैं मोहब्बत की जगह लेकिन ख़ला है अब मेरे दिल में निगाहें तेरी राहों की तरफ़ जाने से डरती हैं ख़ुदी ने डाल रक्खे हैं मेरे जज़्बात पर ताले अना ने डाल रक्खी हैं तेरे पाओं में ज़ंजीरें मेरी साँसों की लय पर आज वहशत रक़्स करती है अभी जज़्बात बोझल हैं , अभी ज़ख़्मी हैं तहरीरें हक़ीक़त के दोराहे पर खड़े हैं आज हम जानाँ तुम्हारी राह वो है और मुझे इस सिम्त जाना है तुम्हारी राह में शायद बहारें रक़्स करती हों ख़िज़ाँ की वहशतों में हाँ मगर मेरा ठिकाना है तक़ाज़ा मस्लेहत का है , ख़ुशी से हम बिछड़ जाएँ न अब हम याद रक्खें और न इक दूजे को या