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Showing posts from July 29, 2018

ज़र्ब तक़दीर ने वो दी कि मेरी हार के साथ

ज़र्ब तक़दीर ने वो दी कि मेरी हार के साथ रेज़ा रेज़ा हुई तौक़ीर भी पिनदार के साथ जैसे गुल कोई हम आग़ोश रहे ख़ार के साथ सैकड़ों रोग लगे हैं दिल-ए-बेज़ार के साथ छू गई थी अभी हौले से नसीम-ए-सहरी ज़ुल्फ़ अठखेलियाँ करने लगी रुख़सार के साथ रास्ता लिपटा रहा पाँव से नागन की तरह हम भी बस चलते रहे इस रह-ए-ख़मदार के साथ रूह ज़ख़्मी हुई , लेकिन ये तमाशा भी हुआ हो गई कुंद वो शमशीर भी इस वार के साथ दीन भी बिकता है बाज़ार-ए-सियासत में कि अब अहल-ए-ईमाँ भी नज़र आते हैं कुफ़्फ़ार के साथ हक़ पे तू है तो मेरी आँखों से आँखें भी मिला क्यूँ नदामत सी घुली है तेरे इंकार के साथ   है नवाज़िश कि बुलाया मुझे "मुमताज़" यहाँ लीजिये हाज़िर-ए-ख़िदमत हूँ मैं अशआर के साथ

जो दिल को क़ैद किये है हिसार, किस का है

जो दिल को क़ैद किये है हिसार , किस का है शऊर - ए - दीद पे आख़िर ग़ुबार किस   का   है करेंगे हम भी तनासुब   तो   सब्र का   लेकिन ये तुम भी सोच लो परवरदिगार किस का   है ये   ज़ख़्म ज़ख़्म   तमन्ना , लहू   लहू   हस्ती जो दिल में उतरा है सीधा , ये वार किस का है सलाम करते हैं झुक झुक के गुलसिताँ जिसको खिला खिला रुख़ - ए - रश्क - ए - बहार किस का   है अज़ल से जिस के त ' अक़्क़ुब में है जुनूँ   मेरा लरज़ता अक्स सराबों के   पार   किस का   है तराशे जाता है मुझ को ये कौन   सदियों   से " ये लख़्त लख़्त बदन शाहकार किस   का   है " हज़ार रेज़ों में बिखरा   दिया   है   हस्ती   को दिल - ए - फिगार पे ' मुमताज़ ' वार किस   का   है جو   دل   کو   قید   کے   ہے , حصار   کس   کا   ہے شعور_ دید   پہ    آخر   غبار   کس   کا   ہے کرینگے   ہم   بھی   تناسب   تو   صبر   کا   لیکن یہ   تم   بھی   سوچ   لو   پروردگار   کس   کا   ہے یہ   زخم   زخم   تمنا , لہ

परेशाँ करती थी तूफ़ाँ की दिल्लगी हर वक़्त

परेशाँ करती थी   तूफ़ाँ की   दिल्लगी   हर वक़्त मगर ये काग़ज़ी कश्ती भी क्या लड़ी ,   हर वक़्त हमारा ज़ौक़   भी   बदज़न   ज़रा ज़रा   सा   रहे   तमन्ना भी रहे   हम से   तनी तनी   हर   वक़्त क़रीब   आ के   जो   मंज़िल   चुरा   गई   नज़रें तो फिर लगन यही हम को लगी रही   हर वक़्त दर - ए - हबीब पे   हम छोड़   आए   थे   जिस   को पुकारा करती है हम को वो   बेख़ुदी   हर   वक़्त ख़ज़ाना दिल की रियासत में कम न था लेकिन न जाने क्यूँ मेरा दामन रहा तही   हर   वक़्त कभी   सरापा   इनायत , कभी   सरापा   अज़ाब नसीब भी करे हम से तो दिल्लगी   हर   वक़्त अगरचे दिल भी था सैराब , रूह   भी   ख़ुश   थी किसी तो शय की रही ज़ीस्त में कमी हर वक़्त निगलती जाती है इस को ये   तीरगी   फिर   भी " उलझ रही है   अंधेरों   से   रौशनी   हर   वक़्त " अगरचे सूख चुका है   हर एक   बहर - ए - तिलिस्म नज़र में रहती है ' मुमताज़ ' इक नमी   हर वक़्त پریشاں کرتی   تھ