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Showing posts from July 11, 2011

ग़ज़ल - बहारों के लहू से प्यास बुझती है ख़िज़ाओं की

हवस हर लम्हा बढ़ती जाती है हम ग़मफ़नाओं की बहारों के लहू से प्यास बुझती है ख़िज़ाओं की HAWAS HAR LAMHAA BADHTI JAATI HAI AB GHAM FANAAON KI BAHAARON KE LAHOO SE PYAS BUJHTI HAI KHIZAAON KI मेरी गुफ़्तार की क़ीमत चुकानी तो पड़ी मुझको ख़मोशी भी तो तेरी मुस्तहक़ ठहरी सज़ाओं की MERI GUFTAAR KI QEEMAT CHUKAANI TO PADI MUJH KO KHAMOSHI BHI TO TERI MUSTAHAQ THEHRI SAZAAON KI कोई आवाज़ अब कानों में दाख़िल ही नहीं होती समाअत अब तलक तालिब है तेरी ही सदाओं की KOI AAWAAZ AB KAANON MEN DAAKHIL HI NAHIN HOTI SAMAA'AT AB TALAK TAALIB HAI TERI HI SADAAON KI मुक़द्दर की ये तारीकी , सफ़र ये तेरी यादों का चमक उठती हैं राहें रौशनी से ज़ख़्मी पाओं की MUQADDAR KI YE TAARIKI SAFAR YE TERI YAADON KA CHAMAK UTHTI HAIN RAAHEN ROSHNI SE ZAKHMEE PAAON KI मरज़ ये लादवा है अब क़ज़ा के साथ जाएगा मरीज़-ए-ज़िन्दगी को अब ज़रूरत है दुआओं की MARAZ YE LAADAVAA TO AB QAZA KE SAATH JAAEGA MAREEZ E ZINDGI KO AB ZAROORAT HAI DUAAON KI मैं हूँ मायूस राहों से तो राहें सर ब सजदा हैं कि मंज़िल च