उट्ठी जो आह दिल पे जमी बर्फ़ तोड़ कर

उट्ठी जो आह दिल पे जमी बर्फ़ तोड़ कर
शिरियानों से ले आई लहू तक निचोड़ कर

क़िस्मत के ये शिगाफ़ भरे जाएँ किस तरह
देखा है उसके दर पे जबीं को भी फोड़ कर

तेरे करम की आस में कब से हैं मुन्तज़िर
आ सामने कि चूम लें कदमों को दौड़ कर

रक्खा है बार बार भरम इल्तेफ़ात का
बिखरी हुई वजूद की किरचों को जोड़ कर

जाने ये किसकी मात थी, किसको मिली सज़ा
सायों से इंतेक़ाम लिया धूप ओढ़ कर

इस रहबरी में क्या कहें कैसे थे मज़्मरात
हम साथ साथ चलते रहे मुंह को मोड़ कर

इस तल्ख़ी-ए-हयात की शिद्दत न पूछिए
मुमताज़ रख दिया है कलेजा मरोड़ कर


शिरियानों से - नसों से,  शिगाफ़ दरार, जबीं माथा, मुन्तज़िर प्रतीक्षारत, इल्तेफ़ात मेहरबानी, मज़्मरात रहस्य 

Comments

Popular posts from this blog

ज़ालिम के दिल को भी शाद नहीं करते