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Showing posts from October 1, 2018

वही आवारगी होती, वही फिर बेख़ुदी होती

वही आवारगी होती , वही फिर बेख़ुदी होती नज़र की एक जुम्बिश से तमन्ना फिर नई होती कभी झुकतीं , कभी उठतीं , कभी इठला के लहरातीं मज़ा आता जो राहों में कहीं कुछ तो कजी होती सुलगते वाहमों के कितने ही दर बंद हो जाते कभी मेरी सुनी होती , कभी अपनी कही होती नहीं उतरा कोई दिल के अँधेरों में कभी वरना ग़ुरूर-ए-ज़ात की सारी हक़ीक़त खुल गई होती मेरी दुनिया न होती , वो तुम्हारा ही जहाँ होता कहीं तो कुछ ख़ुशी होती , कहीं तो दिलकशी होती हिसार-ए-ज़ात का हर गोशा गोशा जगमगा उठता जहाँ तक तेरा ग़म होता वहीं तक ज़िंदगी होती ज़मीन-ए-दिल के मौसम का बदलना भी ज़रूरी था कभी दिन तो कभी “ मुमताज़ ” कुछ तीरा शबी होती  

दिल तुम्हें ख़ुद ही बता देगा कि रग़बत क्या है

दिल तुम्हें ख़ुद ही बता देगा कि रग़बत क्या है पूछते क्या हो मेरी जान मोहब्बत क्या है है मयस्सर जिसे सब कुछ वो भला क्या समझे किसी मुफ़लिस से ये पूछो कि ज़रूरत क्या है कोई अरमाँ न रहा दिल में तो क्या देंगे जवाब पूछ बैठा जो ख़ुदा हम से कि हाजत क्या है हुस्न है , प्यार है , ईसार का इक दरिया है कोई समझा ही कहाँ है कि ये औरत क्या है दर ब दर बेचती फिरती है जो बाज़ारों में इक तवायफ़ से ज़रा पूछो कि अस्मत क्या है मेरा महबूब उठा रूठ के पहलू से मेरे कोई बतलाए कि अब और क़यामत क्या है कहकशाँ डाल दी क़दमों में ख़ुदा ने मेरे दर ब दर फिरने की “मुमताज़” को हाजत क्या है

ख़्वाब हैं आँखों में कुछ, दिल में धड़कता प्यार है

ख़्वाब   हैं   आँखों   में   कुछ , दिल   में   धड़कता   प्यार   है हाँ   हमारा   जुर्म   है   ये , हाँ   हमें   इक़रार   है मसलेहत   की   शर   पसंदी   किस   क़दर   ऐयार   है " देखिये   तो   फूल   है   छू   लीजिये   तो   ख़ार   है" रहबरान-ए-क़ौम    से   अब   कोई   तो   ये   सच   कहे इस   सदी   में   क़ौम   का   हर   आदमी   बेदार   है सुगबुगाहट   हो   रही   है   आजकल   बाज़ार   में मुफ़लिसी   की   हो   तिजारत   ये   शजर   फलदार   है सुर्ख़रू   है   फितनासाज़ी रूसियाह   है   इंतज़ाम मुल्क   की   बूढी   सियासत   इन   दिनों   बीमार   है हमलावर   रहती   हैं   अक्सर   नफ़्स   की   कमज़ोरियाँ जाने   कब   से   आदमीयत   बर   सर-ए-पैकार   है हो   गया   पिन्दार   ज़ख़्मी   खुल   गया   सारा   भरम क़ौम   को   जो   बेच   बैठा , क़ौम   का   सरदार   है हाँ   तुम्हीं   सब   से   भले   हो , जो   करो   वो   ठीक   है हैं   बुरे   "मुमताज़" हम   ही , हम   को   कब   इनकार   है

वफ़ा के अहदनामे में हिसाब-ए-जिस्म-ओ-जाँ क्यूँ हो

वफ़ा के अहदनामे में हिसाब - ए - जिस्म - ओ - जाँ क्यूँ हो बिसात - ए - इश्क़ में अंदाज़ा - ए - सूद - ओ - ज़ियाँ क्यूँ   हो मेरी परवाज़ को क्या क़ैद कर पाएगी हद कोई बंधा हो जो किसी हद में वो मेरा आसमाँ क्यूँ हो सहीफ़ा हो कि आयत हो हरम हो या सनम कोई कोई दीवार हाइल मेरे उस के दर्मियाँ क्यूँ हो तअस्सुब का दिलों   की सल्तनत में काम ही क्या है मोहब्बत की ज़मीं पर फितनासाज़ी हुक्मराँ क्यूँ हो सरापा आज़माइश तू सरापा हूँ गुज़ारिश मैं तेरी महफ़िल में आख़िर बंद मेरी ही ज़ुबाँ क्यूँ हो जहान-ए-ज़िन्दगी से ग़म का हर नक़्शा मिटाना है ख़ुशी महदूद है , फिर ग़म ही आख़िर बेकराँ क्यूँ हो ये है सय्याद की साज़िश वगरना क्या ज़रूरी है “गिरी है जिस पे कल बिजली वो मेरा आशियाँ क्यूँ हो” हमें हक़ है कि हम ख़ुद को किसी भी शक्ल में ढालें हमारी ज़ात से ' मुमताज़ ' कोई बदगुमाँ क्यूँ   हो