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Showing posts from July 17, 2019

ख़दशात दिल में पलते हैं

ख़दशात दिल में पलते हैं , आँखों में डर भी हैं पत्थर के शहर में कई शीशे के घर भी हैं बरता है हम ने हस्ब-ए-ज़रुरत हर एक को गुल ही नहीं हैं , हाथ में तीर-ओ-तबर भी हैं गो बहर-ए-ज़ात में हैं तलातुम हज़ारहा गहराई में उतर जो सको , तो गोहर भी हैं वाक़िफ़ तो हम हैं ख़ूब तेरे हर कमाल से तेरी जफ़ागरी से मगर बेख़बर भी हैं बीनाई की हुदूद प् थे हुक्मराँ कभी कुछ रोज़ से वो जलवे तेरे दर ब दर भी हैं शादाब गुल्सितानों को शायद ख़बर नहीं ऐसी भी कुछ ज़मीनें हैं , जो बेशजर भी हैं थकने की बाल-ओ-पर को इजाज़त नहीं अभी मेरी निगाह में अभी शम्स-ओ-क़मर भी हैं " मुमताज़" उन के दिल में भी कुछ शर ज़रूर है पेशानी पर लिखे हुए कुछ बल इधर भी हैं ख़दशात=अंदेशा , हस्ब-ए-ज़रुरत=ज़रूरत के मुताबिक़ , गुल=फूल , तीर-ओ-तबर=तीर और कुल्हाड़ी , गो=हालाँकि , बहर-ए-ज़ात=अस्तित्व का समंदर , तलातुम=तूफ़ान , हज़ारहा=हज़ारों , गोहर=मोती , जफ़ागरी=ज़ुल्म करने की आदत , बीनाई=दृष्टि , हुदूद=हदें , हुक्मराँ=हुकूमत करने वाले , शादाब=खिले हुए , बेशजर=बिना पेड़ों के , बाल-ओ-पर=पंख , शम्स-ओ-क़मर=सू