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Showing posts from February 22, 2018

रिश्तों का ये राज़ भी कितना गहरा लगता है

रिश्तों का ये राज़ भी कितना गहरा लगता है दर्द-ओ-अलम का हर अफ़साना अपना लगता है رشتوں کا یہ راز بھی کتنا گہرا لگتا ہے درد و الم کا ہر افسانہ اپنا لگتا ہے चोट कोई खाई है उसने ऐसा लगता है आज तो बदला बदला उसका लहजा लगता है چوٹ کوئی کھائی ہے اس نے ائیسا لگتا ہے آج تو بدلا بدلا اس کا لہجہ لگتا ہے खेल रहा है जो ग़ुरबत की गोद में हसरत से ये तो किसी के दिल का कोई टुकड़ा लगता है کھیل رہا ہے جو غربت کی گود میں حسرت سے یہ تو کسی کے دل کا کوئی ٹکڑا لگتا ہے ये वहशत , ये बेचैनी , ये दर्द तो मेरा है रंग तुम्हारे चेहरे का क्यूँ फीका लगता है یہ وحشت، یہ بیچینی، یہ درد تو میرا ہے رنگ تمہارے چہرے کا کیوں پھیکا لگتا ہے शब की सियाही ने क्या इसको भी रंग डाला है ? आज सहर का रंग भी कितना काला लगता है شب کی سیاہی نے کیا اس کو بھی رنگ ڈالا ہے آج سحر کا رنگ بھی کتنا کالا لگتا ہے हर लब पर फिर हैरत के ताले पड़ जाते हैं नहले पर “ मुमताज़ ” कभी जब दहला लगता है ہر لب پر پھر نفرت کے تالے پڑ جاتے ہیں نہلے پر ممتازؔ کبھی جب دہلا لگتا ہے

इस मुसाफ़त से मुझे क्या है मिला याद नहीं

इस मुसाफ़त से मुझे क्या है मिला याद नहीं क्या मेरे पास है , क्या क्या है लुटा याद नहीं اس مسافات سے مجھے کیا ہے ملا یاد نہیں کیا مرے پاس ہے، کیا کیا ہے لٹا یاد نہیں दिल का ये शहर उजड़ जाने का एहसास तो है हो गई कैसे क़यामत ये बपा याद नहीं دل کا یہ شہر اجڑ جانے کا احساس تو ہے ہو گئی کیسے قیامت یہ بپا یاد نہیں आग सी जलती रही दिल की सियाही में मगर कौन इस आतिश-ए-दोज़ख़ में जला याद नहीं آگ سی جلتی رہی دل کی سیاہی میں مگر کون اس آتشِ دوزخ میں جلا یاد نہیں वहशतें ऐसी कि ख़ुद से भी हेरासाँ हैं हम बेख़ुदी ऐसी कि अपना भी पता याद नहीं وحشتیں ائیسی کہ خود سے بھی حراساں ہیں ہم بیخودی ائیسی کہ اپنا بھی پتہ یاد نہیں ये तो है याद कि दिल में थी बड़ी आग मगर कब ये दिल सर्द हुआ , कब ये बुझा याद नहीं یہ تو ہے یاد کہ دل میں تھی بڑی آگ مگر کب یہ دل سرد ہوا، کب یہ بجھا یاد نہیں हम तो राहों के मनाज़िर में हुए गुम ऐसे कारवाँ जाने कहाँ जा के रुका याद नहीं ہم تو راہوں کے مناظر میں ہوئے گم ائیسے کارواں جانے کہاں جا کے رکا یاد نہیں जिसके होने से मेरी ज़ात में तु