ग़ज़ल - यास की मल्गुजी परतों से तमन्ना का ज़हूर
यास की मल्गुजी परतों से तमन्ना का ज़हूर याद ने तोड़ दिया आज अना का भी ग़ुरूर ज़हन से पोंछ दिया उस का हर इक नक़्श ओ निगार आख़िरश कर ही लिया आज ये दरिया भी उबूर तीरगी फैल गई फिर से निगाहों में, के बस एक लम्हे को हुआ दिल में तमन्ना का ज़हूर रहज़न-ए- वक़्त ने बहका के हमें लूट लिया न मोहब्बत की ख़ता थी, न जफ़ाओं का क़ुसूर फिर कहीं ऐसा न हो तेरी ज़रुरत न रहे फिर न इस सर से उतर जाए रिफ़ाक़त का सुरूर तालिब ए ज़ौक़ ए समा 'अत है हमारी भी सदा एक फ़रियाद लिए आए ...