ग़ज़ल - यास की मल्गुजी परतों से तमन्ना का ज़हूर
यास की मल्गुजी परतों से तमन्ना का ज़हूर याद ने तोड़ दिया आज अना का भी ग़ुरूर ज़हन से पोंछ दिया उस का हर इक नक़्श ओ निगार आख़िरश कर ही लिया आज ये दरिया भी उबूर तीरगी फैल गई फिर से निगाहों में, के बस एक लम्हे को हुआ दिल में तमन्ना का ज़हूर रहज़न-ए- वक़्त ने बहका के हमें लूट लिया न मोहब्बत की ख़ता थी, न जफ़ाओं का क़ुसूर फिर कहीं ऐसा न हो तेरी ज़रुरत न रहे फिर न इस सर से उतर जाए रिफ़ाक़त का सुरूर तालिब ए ज़ौक़ ए समा 'अत है हमारी भी सदा एक फ़रियाद लिए आए हैं हम तेरे हुज़ूर आज फिर हिर्स से दानाई ने खाई है शिकस्त जाल में फिर से फ़रेबों के उतर आए तुयूर इस नई नस्ल की क़दरों का ख़ुदा हाफ़िज़ है कोई बीनाई का ढब है , न समा 'अत का शऊर वो सुने या न सुने , बोझ तो हट जाएगा आज 'मुमताज़' उसे हाल तो कहना है ज़रूर यास= उदासी, मल्गुजी= मैली, ज़हूर= ज़ाहिर होना, अना= अहम्, ग़ुरूर= घमंड, ज़हन= दिमाग, नक्श ओ निगार= features, आख़िरश= आखि