दिल में उतरे रूह पर छाए बहुत
दिल में उतरे रूह पर छाए बहुत अब डराते हैं हमें साये बहुत सर्द झोंकों ने सितम ढाए बहुत ज़ख़्म दिल के हमने सहलाये बहुत वक़्त की हर चाल से वाक़िफ़ थे पर धोके हमने जान कर खाए बहुत चार सू कैसा अजब हंगाम था हम भरी दुनिया से उकताए बहुत जल उठे अपना तबस्सुम देख कर हम खिले तो दोस्त मुरझाए बहुत पेच रिश्तों के न सुलझे फिर कभी हमने ये धागे तो सुलझाए बहुत जिन में हिम्मत थी वो मंज़िल पा गए जो पलट आए वो पछताए बहुत कैसे कैसे लोग रुख़सत हो गए “आप से पहले यहाँ आए बहुत” जब कभी उनके करम याद आ गए ख़ुद पे हम “मुमताज़” इतराये बहुत रूह – आत्मा , तबस्सुम – मुस्कान , रुख़सत – विदा