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Showing posts from March 15, 2017

अगर उससे मुलाक़ातों का यूँ ही सिलसिला होता

अगर उससे मुलाक़ातों का यूँ ही सिलसिला होता तो रफ़्ता रफ़्ता मेरे कर्ब से वो आशना होता हमारी दुश्मनी का तज़किरा गर जा ब जा होता सर-ए-बाज़ार अपना इश्क़ रुसवा हो गया होता हमारी बेनियाज़ी ने बचा ली लाज उल्फ़त की तेरी बेमेहरियों का राज़ वरना खुल गया होता न एहसास-ए-अलम होता न ग़म होता बिछड़ने का अगर अपनी वफ़ा पर हर्फ़ भी कुछ आ गया होता बिछड़ते वक़्त वो हसरत से मुड़ कर देखना उसका नज़र में काश वो मंज़र ही ज़िंदा रह गया होता जुनून-ए-शौक़ ने अक्सर कुरेदा है इन्हें वरना हर इक ज़ख़्म-ए-तमन्ना अब तलक तो भर गया होता सभी मजबूरियाँ “ मुमताज़ ” दिल में रह गईं आख़िर कभी तो कुछ सुना होता , कभी तो कुछ कहा होता 

मेरी बलन्दी ने मुझको कितना पामाल किया

मेरी बलन्दी ने मुझको कितना पामाल किया मुस्तक़बिल ने माज़ी से फिर एक सवाल किया कुछ तो क़िस्मत भी वाबस्ता थी राहों के साथ मंज़िल ने भी इस निस्बत का ख़ूब ख़याल किया उम्र पड़ी थी , और मुश्किल था जीना तेरे बाद इस तज़ाद ने कैसा ये हस्ती का हाल किया चेहरे की हर एक शिकन में नक़्श तेरे हुब का हम ने उम्र का इक इक लम्हा सर्फ़-ए-विसाल किया मेरे ज़िम्मे तेरे गुलिस्ताँ की थी निगहबानी जाँ दे कर “ मुमताज़ ” ने मुस्तक़बिल को हाल किया पामाल – पददलित , मुस्तक़बिल – भविष्य , माज़ी – अतीत , वाबस्ता – संबन्धित , निस्बत – संबंध , तज़ाद – विरोधाभास , हुब – प्यार , सर्फ़-ए-विसाल किया – मिलन में गुज़ारा , हाल – वर्तमान 

ये तूफ़ान-ए-हवादिस, बारिशें ये संगपारों की

ये तूफ़ान-ए-हवादिस , बारिशें ये संगपारों की भटकती रह गईं वादी में चीख़ें संगसारों की हवा में तैरते ये धूल के बादल भी शाहिद हैं यहीं से हो के गुज़री थी वो टुकड़ी शहसवारों की दुआएँ माँगता रहता है ये तपता हुआ सहरा नज़र इस सिम्त भी तो हो कभी इन अब्रपारों की सुना है बिक रही है आजकल उल्फ़त दुकानों में चलो देखें ज़रा , क़ीमत लगी क्या इफ़्तेख़ारों की ये कैसा जश्न है “ मुमताज़ ” इस लाशों की बस्ती में बहुत होती है आराइश जो इन उजड़े मज़ारों की तूफ़ान-ए-हवादिस – हादसों का तूफ़ान , संगपारों की – पत्थर के टुकड़ों की , संगसार – जिसको पत्थर से मारा जाए , शाहिद – गवाह , सहरा – रेगिस्तान , अब्रपारों की – बादल के टुकड़ों की , इफ़्तेख़ारों की – इज़्ज़तदार लोगों की , आराइश – सजावट , मज़ारों की – क़ब्रों की 

दिल में उट्ठेगा जब तलातुम तो राहतों का ग़ुरूर तोड़ेगा

दिल में उट्ठेगा जब तलातुम तो राहतों का ग़ुरूर तोड़ेगा बुझते बुझते भी ये वजूद मेरा इक धुएँ की लकीर छोड़ेगा हश्र बरपा करेगा सीने में ज़ख़्मी जज़्बात को झिंझोड़ेगा ये तग़ाफ़ुल तेरा जो हद से बढ़ा , मेरे दिल का लहू निचोड़ेगा आज ये बेतकाँ उड़ान मेरी किस बलन्दी पे मुझको ले आई क्या ख़बर थी कि ये जुनून मेरा मेरा रिश्ता ज़मीं से तोड़ेगा किसकी परवाज़ इतनी ऊँची है , किसकी हिम्मत में वो रवानी है कौन डालेगा आस्माँ पे कमंद , कौन मौजों के रुख़ को मोड़ेगा वो नहीं कोई रेत का ज़र्रा जिसको तूफ़ान ज़ेर-ओ-बम कर दे वो तो “ मुमताज़ ” बहता पानी है पत्थरों पर निशान छोड़ेगा तलातुम – लहरों के थपेड़े , हश्र – प्रलय , तग़ाफ़ुल – बेरुख़ी , बेतकाँ – अनथक , परवाज़ – उड़ान , रवानी – बहाव , कमंद – ऊपर चढ़ने की रस्सी , मौजों के – लहरों के , ज़र्रा – कण , ज़ेर-ओ-बम – उलट पलट 

मेरा वजूद कशाकश का यूँ शिकार रहा

मेरा वजूद कशाकश का यूँ शिकार रहा कि जैसे दिल में सुलगता सा इक शरार रहा रफ़ीक़ो छेड़ो न हमसे ये ऐतबार की बात हर ऐतबार का रिश्ता बे ऐतबार रहा अना ने हमको उठा तो दिया था उस दर से कहीं भी हमको न फिर उम्र भर क़रार रहा जो इक निगाह से सरशार हुई दिल की ज़मीं तमाम उम्र यहाँ मौसम-ए-बहार रहा वही थी दश्त नवर्दी , वही थी वहशत-ए-दिल तमाम उम्र हमारा यही शआर रहा नशे में डूबी हुई एक शाम पाई थी न जाने कितने दिनों तक वही ख़ुमार रहा बिछड़ के उससे भी जीना था एक मुद्दत तक हमारी जाँ पे मोहब्बत का इक उधार रहा बिछड़ के हमसे कहाँ चैन से रहा वो भी हमारी याद में वो भी तो बेक़रार रहा ख़ुदी में सिमटे तो हम इस जहाँ से कट ही गए हमारी ज़ात पे “ मुमताज़ ” इक हिसार रहा कशाकश – खींचा तानी , शरार – अंगारा , रफ़ीक़ो – साथियो , ऐतबार – भरोसा , अना – अहं , सरशार – नशे में चूर , दश्त नवर्दी – जंगल में भटकना , वहशत-ए-दिल – दिल की घबराहट , शआर – ढंग , हिसार – घेरा