ग़ज़ल - अगर नालाँ हो हमसे
अगर नालाँ हो हमसे, जा रहो ग़ैरों के साए में
अजी रक्खा ही क्या है
रोज़ की इस हाए हाए में
हज़ारों बार दाम-ए-आरज़ू
से खेंच कर लाए
प अक्सर आ ही जाता है
ये दिल तेरे सिखाए में
बिल आख़िर बेहिसी ने डाल
दीं जज़्बों पे ज़ंजीरें
न कोई फ़र्क़ ही बाक़ी रहा
अपने पराए में
नहीं बदला अगर तो रंग
इस दिल का नहीं बदला
मुसाफ़िर आते जाते ही
रहे दिल की सराए में
मयस्सर है हमें सब कुछ
प दिल ही बुझ गया है अब
कहाँ वो लुत्फ़ बाक़ी जो
था उस अदरक की चाए में
जहाँ से छुप छुपा कर
आ बसे हैं हम यहाँ जानाँ
दो आलम की पनाहें हैं
तेरी पलकों के साए में
निबाहें किस तरह “मुमताज़” हम इस शहर-ए-हसरत
से
हज़ारों ख़्वाहिशें बसती हैं उल्फ़त के बसाए में
"हज़ारों बार दाम-ए-आरज़ू से खेंच कर लाए
ReplyDeleteप अक्सर आ ही जाता है ये दिल तेरे सिखाए में"
...........लाजवाब
"हज़ारों बार दाम-ए-आरज़ू से खेंच कर लाए
ReplyDeleteप अक्सर आ ही जाता है ये दिल तेरे सिखाए में"
...........लाजवाब
लाजवाब व बेमिसाल
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