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Showing posts from July 3, 2018

लग़्ज़िशों को शबाब देती हूँ

लग़्ज़िशों को शबाब देती हूँ फिर बहारों को ख़्वाब देती हूँ ख़ुद को यूँ भी अज़ाब देती हूँ आरज़ू का सराब देती हूँ सी के लब ख़ामुशी के धागों से हसरतों को अज़ाब देती हूँ जी रही हूँ बस एक लम्हे में इक सदी का हिसाब देती हूँ ज़ुल्म सह कर भी मुतमइन हूँ मैं ज़िन्दगी को जवाब देती हूँ वक़्त-ए-रफ़्ता के हाथ में अक्सर ज़िन्दगी की किताब देती हूँ बाल-ओ-पर की हर एक फड़कन को हौसला ? जी जनाब , देती हूँ हर इरादे की धार को फिर से आज “ मुमताज़ ” आब देती हूँ

माज़ी के निशाँ और हाल का ग़म जब एक ठिकाने मिलते हैं

माज़ी के निशाँ और हाल का ग़म जब एक ठिकाने मिलते हैं कुछ और चुभन बढ़ जाती है जब यार पुराने मिलते हैं गो इश्क़ की इस लज़्ज़त से हमें महरूम हुए इक उम्र हुई अब भी वो हमें महरूमी का एहसास दिलाने मिलते हैं दिन रात मिलाने पड़ते हैं घर छोड़ के जाना पड़ता है पुर ज़ोर मशक़्क़त से यारो कुछ रिज़्क़ के दाने मिलते हैं अब तक तो फ़िज़ा-ए-दिल पर भी वीरान ख़िज़ाँ का मौसम है देखें कि बहारों में अब के क्या ख़्वाब न जाने मिलते हैं देखो तो कभी , पलटो तो सही , अनमोल है इन का हर पन्ना माज़ी की किताबों में कितने नायाब फ़साने मिलते हैं हसरत के लहू का हर क़तरा मिट्टी में मिलाना पड़ता है मत पूछिए कितनी मुश्किल से ग़म के ये ख़ज़ाने मिलते हैं जज़्बात के पाओं में बेड़ी , गुफ़्तार पे क़ुफ़्ल-ए-नाज़-ए-अना वो मिलते भी हैं तो यूँ जैसे एहसान जताने मिलते हैं दो चार निवाले भी न मिले तो आब-ए-क़नाअत पी डाला इस बज़्म-ए-जहाँ की भीड़ में कुछ ऐसे भी घराने मिलते हैं तक़सीम-ए-मोहब्बत करते हैं मख़मूर-ए-ग़म-ए-दौराँ हो कर बेकैफ़ जहाँ में अब भी कुछ “ मुमताज़ ” दीवाने मिलते हैं

कभी मुझ को बनाते हो, कभी मुझ को मिटाते हो

एक हसीन इंग्लिश पोयम का मंज़ूम तर्जुमा तरह- you won’t say yes, you won’t say no कभी मुझ को बनाते हो , कभी मुझ को मिटाते हो ये कैसी कश्मकश है , क्यूँ मुझे तुम आज़माते हो शिकस्ता दिल तड़पता है तो तुम क्या मुस्कराते हो ज़रा सी मुस्कराहट से कई फ़ित्ने जगाते हो अज़ाबों के मुसलसल खेल में क्या लुत्फ़ पाते हो हमेशा दिल की बातें जान-ए-जाँ हम से छुपाते हो मचलता है , तड़पता है , तड़प कर मुस्कराता है मेरे दिल को अजब ख़दशात में तुम छोड़ जाते हो कभी जानाँ मेरी तक़दीर का भी फ़ैसला कर दो मुझे बेचैनियों के दायरों में क्यूँ घुमाते हो कभी ख़ुशफ़हमियों के आस्माँ पर रख दिया मुझ को बलन्दी से ज़मीं पर फिर कभी पल में गिराते हो हुए हैं तानाज़न अहबाब भी अब मेरी हालत पर इजाज़त हो तो कह दूँ , क्या सितम तुम मुझ पे ढाते हो अजब तर्ज़-ए-मसीहाई , ग़ज़ब तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल है तज़बज़ुब के ये कैसे ख़्वाब तुम मुझ को दिखाते हो जिधर जाऊँ , जिधर देखूँ , सराबों का तसलसुल है मुझे “ मुमताज़ ” दश्त-ए-आरज़ू में क्या फिराते हो O riginal creation you won't say yes you won't s