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Showing posts from October, 2018

अपने जज़्बात की तुगियानी से उलझा न करो

अपने   जज़्बात   की   तुगियानी से   उलझा   न   करो जानलेवा   है   ये   चाहत , उसे   चाहा   न   करो अपने   अन्दर   के   बयाबानों   में   खोया   न   करो " इतना   गहरा   मेरी   आवाज़   से   पर्दा   न   करो" मैं   तो   इक   टूटा   हुआ   ख़्वाब   हूँ , मेरा   क्या   है मेरे   बारे   में   कभी   ग़ौर   से   सोचा   न   करो मार   डालेगा   तमन्नाओं   का   बेसाख्तापन             इतनी   बेचैन   तमन्नाओं   को   यकजा    न   करो ज़ब्त   का   बाँध   जो   टूटा   तो   बहा   लेगा   तुम्हें दिल   में   उठते   हुए   तूफ़ानों   को   रोका   न   करो बड़ी   मुश्किल   से   चुरा   पाई   हूँ   इन   से   ख़ुद   को सर   पटकते   हुए   सन्नाटों   का   चर्चा   न   करो खो   न   जाओ   कहीं   फिर   अपनी   ही   तारीकी   में   दश्त ए तन्हाई   में   शब्   भर   यूँ   ही   भटका   न   करो रोशनी   चुभती   है   "मुमताज़" अभी   आँखों   में   आज   रहने   दो   ये   तारीकी , उजाला   न   करो apne jazbaat ki tughiyaani meN uljha na karo jaan lewa hai ye chaahat, use

ये राहतों में पिघलती सी बेकली क्यूँ है

ये राहतों में पिघलती सी बेकली क्यूँ है अजीब फाँस सी दिल में चुभी हुई क्यूँ है न मुनहसिर है अमल पर , न हौसलों की बिसात यहाँ नसीब की मोहताज हर ख़ुशी क्यूँ है ज़रा सी धूप भी लग जाए तो ये जल जाए ये शोहरतों का जहाँ इतना काग़ज़ी क्यूँ है ये क़ुर्बतों में अजब फ़ासला सा कैसा है बसा है रूह में , फिर भी वो अजनबी क्यूँ है जो मुझ को सुननी थी , लेकिन कही नहीं तुम ने बिछड़ते वक़्त भी वो बात फिर कही क्यूँ है हर एक सिम्त खिज़ाओं का सर्द मौसम है ये दिल की शाख़ तमन्ना से फिर लदी क्यूँ है मचलती ख़ुशियाँ हैं , हर सिम्त राहतें हैं तो फिर तेरी निगाह में "मुमताज़" ये नमी क्यूँ है ye raahtoN meN pighalti si bekali kyuN hai ajeeb phaans si dil meN chubhi hui kyun hai na munhasir hai amal par, na hauslon ki bisaat yahaN naseeb ki mohtaaj har khushi kyuN hai zara si dhoop bhi lag jaae to ye jal jaae ye shohratoN ka jahaN itna kaaghzi kyuN hai ye qurbatoN men ajab faasla sa kaisa hai basaa hai rooh meN, phir bhi wo ajnabee kyun hai jo m

तेरी ये बेनियाज़ी फिर ज़रा बदनाम हो जाए

तेरी ये बेनियाज़ी फिर ज़रा बदनाम हो जाए मेरी महरूमियों का आज चर्चा आम हो जाए कहाँ जाए तबाही , वहशतों का हश्र फिर क्या हो मेरी किस्मत की हर साज़िश अगर नाकाम हो जाए अँधेरा है , सफ़र का कोई अंदाज़ा नहीं होता किधर का रुख़ करूँ , शायद कोई इल्हाम हो जाए हया की वो अदा अब हुस्न में पाई नहीं जाती निगाहों की तमाज़त से जो गुल अन्दाम हो जाए दर-ए-रहमत प् हर उम्मीद कब से सर-ब-सजदा है तेरी बस इक नज़र उट्ठे , हमारा काम हो जाए वफ़ा की राह में ये भी नज़ारा बारहा देखा जलें पर शौक़ के , लेकिन जुनूँ बदनाम हो जाए नज़र "मुमताज़" उठ जाए तो दुनिया जगमगा उट्ठे नज़र झुक जाए वो , तो पल के पल में शाम हो जाए   teri ye beniyaazi phir zara badnaam ho jaaey meri mahroomiyon ka aaj charcha aam ho jaaey kahaN jaaey tabaahi, wahshatoN ka hashr phir kya ho miri qismat ki har saazish agar nakaam ho jaaey andhera hai, safar ka koi andaaza nahin hota kidhar ka rukh karun, shaayad koi ilhaam ho jaaey hayaa ki wo adaa ab husn men paai nahin jaati nigaahon ki t

हर मसलेहत शनासी का मे'यार देख कर

हर मसलेहत   शनासी का मे ' यार देख कर चलते हैं हम ज़माने की रफ़्तार देख कर उकता गई हूँ हसरत ए दीदार देख कर भरता कहाँ है दिल उसे इक बार देख कर हालात ज़िन्दगी के तो यूँ ही रहेंगे यार होना भी क्या है सुब्ह का अखबार देख कर अब तक इसी ज़मीर पे कितना ग़ुरूर था हम दम ब ख़ुद हैं क़िलआ ये मिस्मार देख कर बदला ज़रा जो वक़्त तो नज़रें बदल गईं डरता है दिल अज़ीज़ों का किरदार देख कर आवारगी ने ऐसा निखारा हमें कि हम अब चल पड़े हैं राह को दुश्वार देख कर ले कर सवाल पहुंचे थे उस के हुज़ूर हम लौट आए उस के होंटों पे इनकार देख कर हैरत ज़दा है ज़ेहन तो क़ासिर ज़ुबान है " मुमताज़" उन निगाहों कि गुफ़्तार देख कर ہر مصلحت شناسی کا معیار دیکھ کر چلتے ہیں ہم زمانے کی رفتار دیکھ کر اکتا گئی ہوں حسرتِ دیدار دیکھ کر بھرتا کہاں ہے دل اسے اک بار دیکھ کر حالات زندگی کے تو یوں ہی رہینگے یار ہونا بھی کیا ہے صبح کا اخبار دیکھ کر اب تک یسی ضمیر پہ کتنا غرور تھا ہم دم بہ خود ہیں قلعہ یہ مسمار دیکھ کر بدلا ذرا جو وقت تو نظریں بدل گئیں ڈرتا ہے دل عزیزوں کا کردار دی

ख़ाक हो जाउंगी माना कि बिखर जाऊँगी

ख़ाक हो जाउंगी माना कि बिखर जाऊँगी मलगुजे वक़्त में कुछ रंग तो भर जाऊँगी   जलते सहराओं से कर रक्खी है यारी मैं ने प्यास के सामने अब सीना सिपर जाऊँगी   एक इक कर के अलग हो गईं राहें सब की और मैं सोच रही हूँ कि किधर जाऊँगी हद्द - ए - बीनाई मेरे साथ ही चलती है मगर जुस्तजू में तेरी ता हद्द - ए - नज़र जाऊँगी   जाने किस रूप में अब वक़्त मुझे ढालेगा मैं जो टूटी हूँ तो कुछ और सँवर जाऊँगी दिल के वीराने में उतरे हैं ग़मों के साए तीरगी फैलेगी कुछ और तो डर जाऊँगी   बारहा उभरूँगी मैं इक नए सूरज की तरह " कौन कहता है कि मौत आई तो मर जाऊँगी " बढ़ता जाएगा जो " मुमताज़ " ये वहशत का हिसार डर के ख़ुद अपने अँधेरों में उतर जाऊँगी   خاک   ہو   جاؤنگی, مانا   کہ   بکھر   جاؤنگی ملگجے   وقت   میں   کچھ   رنگ   تو   بھر   جاؤنگی جلتے   صحراؤں   سے   کر   رکھی    ہے   یاری   میں   نے پیاس   کے   سامنے   اب   سینہ   سپر   جاؤنگ