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Showing posts from August, 2019

इक एक कर के टूट गईं निस्बतें तमाम

इक एक कर के टूट गईं निस्बतें तमाम आओ , तो फिर फ़साना भी ये अब करें तमाम ये कौन सा मक़ाम रिफ़ाक़त का है , जहाँ गुम फ़ासलों में होने लगीं क़ुर्बतें तमाम ज़ंजीर कोई रोक न पाएगी अब हमें अब के जुनून तोड़ चुका है हदें तमाम मज़लूम भी हमीं हैं , ख़तावार भी हमीं रख दो हमारी जान पे ही तोहमतें तमाम यादों की सरज़मीं पे वो तूफाँ उठा , कि बस इक एक कर के खुलने लगी हैं तहें तमाम आईने में जो ख़ुद से मुलाक़ात मैं करूँ क़िस्से हज़ार कहती रहें सलवटें तमाम दे कर गया है कर्ब - ओ - अज़ीयत हज़ारहा नज़राना लें ही क्यूँ , उसे लौटा न दें तमाम ? फलते रहेंगे फिर भी मोहब्बत के कुछ शजर " हालांकि वक़्त खोद चुका है जड़ें तमाम " जिस पर पड़े वो जाने कि होता है दर्द क्या " मुमताज़ " रहने दीजिये ये मंतकें तमाम   निस्बतें – संबंध , तमाम – सब , तमाम – ख़त्म , फ़साना – कहानी , रिफ़ाक़त – साथ , क़ुर्बतें – नज़दीकियाँ , मज़लूम – पीड़ित , ख़तावार – अपराधी ,

तखय्युल के फ़लक से कहकशाएँ हम जो लाते हैं

तखय्युल के   फ़लक   से   कहकशाएँ   हम   जो   लाते   हैं   सितारे   खैर   मकदम   के   लिए   आँखें   बिछाते   हैं ज़मीरों   में लगी   है   ज़ंग , ज़हन -ओ -दिल   मुकफ़्फ़ल   हैं जो   खुद   मुर्दा   हैं , जीने   की   अदा   हम   को   सिखाते   हैं मेरी   तन्हाई   के   दर   पर   ये   दस्तक   कौन   देता   है मेरी   तीरा   शबी   में   किस   के   साये   सरसराते   हैं हक़ीक़त   से   अगरचे   कर   लिया   है   हम   ने   समझौता हिसार -ए -ख्वाब   में    बेकस   इरादे   कसमसाते   हैं मज़ा   तो   खूब   देती   है   ये   रौनक   बज़्म   की   लेकिन मेरी   तन्हाइयों   के   दायरे   मुझ   को   बुलाते   हैं बिलकती   चीखती   यादें   लिपट   जाती   हैं   कदमों   से हजारों   कोशिशें   कर   के   उसे   जब   भी   भुलाते   हैं वो   लम्हे , जो   कभी   हासिल   रहे   थे   ज़िंदगानी   का वो लम्हे   आज   भी   "मुमताज़ " हम   को   खूँ   रुलाते   हैं takhayyul ke falak se kahkashaaeN am jo laate haiN sitaare khair maqdam ke liye aankheN bichhaate haiN zameeroN meN lagi hai zang,

कोई न सायबान, न कोई शजर कहीं

कोई न सायबान , न कोई शजर कहीं मसरुफ़ियत में खो गया मिटटी का घर कहीं लाजिम है एहतियात , ये राह-ए-निजात है बहका के लूट ले न हमें राहबर कहीं हम दर ब दर फिरे हैं सुकूँ की तलाश में हम को सुकून मिल न सका उम्र भर कहीं अपनी तबाहियों का भी मांगेंगे हम हिसाब मिल जाए उम्र-ए-रफ़्तगाँ हम को अगर कहीं इक उम्र हम रहे थे तेरे मुन्तज़िर जहाँ हम छोड़ आए हैं वो तेरी रहगुज़र कहीं रौशन हमारी ज़ात से थे , हम जो बुझ गए गुम हो गए हैं सारे वो शम्स-ओ-क़मर कहीं जब हो सका इलाज , न देखी गई तड़प घबरा के चल दिए हैं सभी चारागर कहीं बरहम हवा से हम ने किया मारका जहाँ बिखरे पड़े हुए हैं वहीँ बाल-ओ-पर कहीं उतरा है दिल में जब से तेरा इश्क-ए-लाज़वाल " पाती नहीं हूँ तब से मैं अपनी ख़बर कहीं" हाथ उस ने इस ख्याल से आँखों पे रख दिया " मुमताज़" खो न जाए तुझे देख कर कहीं शजर – पेड़ , मसरुफ़ियत – व्यस्तता , लाजिम – ज़रूरी , एहतियात – सावधानी , राह-ए-निजात – मोक्ष का रास्ता , राहबर – रास्ता दिखाने वाला , सुकूँ – शांति , उम्र-ए-रफ़्तगाँ – बीत गई उम्र , मुन्तज़िर