जब अपनी ज़िन्दगी से तंग सू-ए-दश्त हम निकले
जब अपनी ज़िन्दगी से तंग सू-ए-दश्त हम निकले तो हमसफ़री की ख़ातिर साथ सब रंज-ओ-अलम निकले न जुरअत करते टकराने की जो पहले समझ जाते ज़माने के रिवाज-ओ-रस्म भी परबत जज़म निकले बड़ा था नाज़ ख़ुद पर , मैं नहीं डरती ज़माने से ज़माने के इरादे मेरे हाथों पर रक़म निकले शिकस्ता हो के जब बिखरी ये हस्ती , होश तब आया शहाना शान से आख़िर मेरे दिल के वहम निकले ये आलम बारहा गुज़रा है हम पर तेरी क़ुर्बत में लबों पर हो तबस्सुम और निगाह-ए-नाज़ नम निकले ये दर-ब-दरी ये शौक़ आवारगी का और सफ़र की धुन न वापस आ सके , इक बार जो घर से क़दम निकले तेरी यादों के ये साए अलामत ज़िन्दगी की हैं जो यादों का ये शीराज़ा बिखर जाए तो दम निकले हमें इस इश्क़ ने “ मुमताज़ ” दीवाना बना डाला जिन्हें माबूद रखते थे वो पत्थर के सनम निकले सू-ए-दश्त – जंगल की तरफ़ , रंज-ओ-अलम – दुख-दर्द , जज़म – अटल , रक़म – लिखा हुआ , शिकस्ता हो के – टूट के , क़ुर्बत – समीपता , तबस्सुम – मुस्कराहट , अलामत – निशानी , शीराज़ा – बंधन , माबूद – पूज्य , सनम – मूर्ति