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Showing posts from March 12, 2017

जब अपनी ज़िन्दगी से तंग सू-ए-दश्त हम निकले

जब अपनी ज़िन्दगी से तंग सू-ए-दश्त हम निकले तो हमसफ़री की ख़ातिर साथ सब रंज-ओ-अलम निकले न जुरअत करते टकराने की जो पहले समझ जाते ज़माने के रिवाज-ओ-रस्म भी परबत जज़म निकले बड़ा था नाज़ ख़ुद पर , मैं नहीं डरती ज़माने से ज़माने के इरादे मेरे हाथों पर रक़म निकले शिकस्ता हो के जब बिखरी ये हस्ती , होश तब आया शहाना शान से आख़िर मेरे दिल के वहम निकले ये आलम बारहा गुज़रा है हम पर तेरी क़ुर्बत में लबों पर हो तबस्सुम और निगाह-ए-नाज़ नम निकले ये दर-ब-दरी ये शौक़ आवारगी का और सफ़र की धुन न वापस आ सके , इक बार जो घर से क़दम निकले तेरी यादों के ये साए अलामत ज़िन्दगी की हैं जो यादों का ये शीराज़ा बिखर जाए तो दम निकले हमें इस इश्क़ ने “ मुमताज़ ” दीवाना बना डाला जिन्हें माबूद रखते थे वो पत्थर के सनम निकले सू-ए-दश्त – जंगल की तरफ़ , रंज-ओ-अलम – दुख-दर्द , जज़म – अटल , रक़म – लिखा हुआ , शिकस्ता हो के – टूट के , क़ुर्बत – समीपता , तबस्सुम – मुस्कराहट , अलामत – निशानी , शीराज़ा – बंधन , माबूद – पूज्य , सनम – मूर्ति 

जीना लाज़िम भी है, जीने का बहाना भी नहीं

जीना लाज़िम भी है , जीने का बहाना भी नहीं पुर्सिश-ए-हाल को अब तो कोई आता भी नहीं वक़्त की धूप कड़ी है , जले जाते हैं क़दम सर पे छत भी , दीवार का साया भी नहीं हर कोई गुज़रा किया मुझसे बचा कर दामन और मैं ने किसी हमराह को रोका भी नहीं शिद्दत-ए-तश्नगी , और दूर तलक सेहरा में एक दरिया तो बड़ी चीज़ है , क़तरा भी नहीं ख़्वाब देखा था कि हाथों में मेरे है सूरज और आँगन में मेरे धूप का टुकड़ा भी नहीं ज़िन्दगी एक ज़ख़ीरा-ए-हवादिस है मगर हादसा बनना तो मैं ने कभी चाहा भी नहीं मैं वो मुफ़लिस कि मेरा दिल भी तही , जाँ भी तही और हाथों में मेरे भीक का कासा भी नहीं मैं ने दुनिया से अलग अपना सफ़र काटा है मेरी नज़रों से बचा कोई तमाशा भी नहीं आग का दरिया है उल्फ़त ये सुना है “ मुमताज़ ” मेरे हाथों में तो शोला भी , शरारा भी नहीं 

दर्द को दर्द का एहसास दिला देते हैं

दर्द को दर्द का एहसास दिला देते हैं अपनी आदत है कि हम ख़ुद को सज़ा देते हैं कैसी लगती है ये दुनिया को दिखा देते हैं ज़िन्दगी आ , तेरी तस्वीर बना देते हैं बुझ भी जाएँगे तो क्या , कुछ तो उजाला होगा कम हो गर तेल तो लौ और बढ़ा देते हैं फोड़ लेते हैं हर इक आबला दिल का ख़ुद ही हर नए ज़ख़्म को फिर आब-ए-बक़ा देते हैं ढूँढ लेगी तो हमें और अज़ीयत देगी ख़ुद को हम ज़ीस्त की आँखों से छुपा देते हैं ज़ख़्म खिलते हैं , उभरते हैं , सँवरते हैं कि ये शब की तन्हाई में कुछ और मज़ा देते हैं उनके आने की जो आहट हमें मिल जाती है हम कि ज़ख़्मों को सर-ए-राह बिछा देते हैं वो करें उनको जो करना है , हमें रंज नहीं हम तो “ मुमताज़ ” उन्हें खुल के दुआ देते हैं आबला – छाला , आब-ए-बक़ा – अमृत , अज़ीयत – यातना , ज़ीस्त – जीवन 

इक पुराना हादसा फिर याद मुझको आ गया

इक पुराना हादसा फिर याद मुझको आ गया इक तसव्वर आज फिर दिल को मेरे तड़पा गया ये तबस्सुम का तसल्सुल जो मेरे लब पर खिला मेरे इस अंदाज़ से फिर दर्द धोखा खा गया सादगी का ये सिला पाया दिल-ए-मजरूह ने बारहा खाया है धोखा , बारहा लूटा गया आज गुज़रा सा इधर से याद का इक क़ाफ़िला वो ग़ुबार उट्ठा कि दिल पर गर्द बन कर छा गया साज़िशें ये थीं मुक़द्दर की कि कश्ती का मेरी रुख़ अभी साहिल की जानिब था कि तूफ़ाँ आ गया भूल जाने के सिवा अब तो कोई चारा नहीं तेरे हर अंदाज़ से ऐ दोस्त जी उकता गया हम उसे जाते हुए देखा किए , और उसने भी फिर पलट कर भी न देखा अबके वो ऐसा गया ये भी इक “ मुमताज़ ” उसका दिलनशीं अंदाज़ है आज फिर ख़्वाबों में मीठी याद बन कर आ गया तसव्वर – कल्पना , तबस्सुम का तसल्सुल – लगातार मुसकराना , मजरूह – घायल , बारहा – बार बार , जानिब – तरफ़ , चारा – इलाज , दिलनशीं – दिल में समाने वाला