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Showing posts from November 6, 2018

तश्नगी को तो सराबों से भी छल सकते थे

तश्नगी को तो सराबों से भी छल सकते थे इक इनायत से मेरे ख़्वाब बहल सकते थे तू ने चाहा ही नहीं वरना कभी तो जानां मेरे टूटे हुए अरमाँ भी निकल सकते थे तुम को जाना था किसी और ही जानिब , माना दो क़दम फिर भी मेरे साथ तो चल सकते थे काविशों में ही कहीं कोई कमी थी वरना ये इरादे मेरी क़िस्मत भी बदल सकते थे रास आ जाता अगर हम को अना का सौदा ख़्वाब आँखों के हक़ीक़त में भी ढल सकते थे हम को अपनी जो अना का न सहारा मिलता लड़खड़ाए थे क़दम यूँ कि फिसल सकते थे इस क़दर सर्द न होती जो मेरे दिल की फ़िज़ा आरज़ूओं के ये अशजार भी फल सकते थे ये तो अच्छा ही हुआ बुझ गई एहसास की आग वरना आँखों में सजे ख़्वाब भी जल सकते थे हार बैठे थे तुम्हीं हौसला इक लग़्ज़िश में हम तो "मुमताज़" फिसल कर भी सँभल सकते थे tashnagi ko to saraaboN se bhi chhal sakte the  ik inaayat se mere khwaab bahal sakte the  tu ne chaahaa hi nahiN warna kabhi to jaanaaN mere toote hue armaaN bhi nikal sakte the  tum ko jaana tha kisi aur hi jaanib maanaa do qadam phir bhi mere saath to c