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Showing posts from September 28, 2019

उठा है फिर रूह में तलातुम, कहीं नज़र में उतर न आए

उठा है फिर रूह में तलातुम , कहीं नज़र में उतर न आए शदीद है दर्द की तमाज़त , कहीं मेरी आँख भर न आए   اُٹھا ہے پھر روح میں طلاطم کہیں نظر میں اتر نہ آئے شدید ہے درد کی تمازت کہیں مری آنکھ بھر نہ آئے ये ग़ार दिल का है कितना गहरा कि इस जगह अब सहर न आए न जाने मैं किस मक़ाम पर हूँ कि अपनी भी अब ख़बर न आए یہ غار دل کا ہے کتنا گہرا کہ اس جگہ اب سحر نہ آئے نہ جانے میں کس مقام پر ہوں کہ اپنی بھی اب خبر نہ آئے मचल रही है फिर एक हसरत , कि दिल को धड़का लगा हुआ है ज़रा अभी दर्द कम हुआ है , ये ज़ख़्म फिर से उभर न आए مچل رہی ہے پھر ایک حسرت کہ دل کو دھڑکا لگا ہوا ہے ذرا ابھی درد کم ہوا ہے یہ زخم پھر سے ابھر نہ آیے समेट कर बिखरे बाल-ओ-पर को फ़लक की जानिब फिर उड़ चली हूँ ग़म-ए-ज़माना को कोई रोको , जुनून के पर कतर न आए سمیٹ کر بکھرے بال و پر کو فلک کی جانب پھر اُڑ چلی ہوں غمِ زمانہ کو کوئی روکو، جنون کے پر کتر نہ آئے पिरो के हम आँख के सितारे सजाया करते हैं महफ़िलों को कुरेद कर ज़ख़्म नग़्माज़न हो , हर एक को ये हुनर न आए پرو کے ہم آنکھ کے ستارے سجایا کرتے ہیں محفلوں کو کرید