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Showing posts from August 18, 2019

कोई न सायबान, न कोई शजर कहीं

कोई न सायबान , न कोई शजर कहीं मसरुफ़ियत में खो गया मिटटी का घर कहीं लाजिम है एहतियात , ये राह-ए-निजात है बहका के लूट ले न हमें राहबर कहीं हम दर ब दर फिरे हैं सुकूँ की तलाश में हम को सुकून मिल न सका उम्र भर कहीं अपनी तबाहियों का भी मांगेंगे हम हिसाब मिल जाए उम्र-ए-रफ़्तगाँ हम को अगर कहीं इक उम्र हम रहे थे तेरे मुन्तज़िर जहाँ हम छोड़ आए हैं वो तेरी रहगुज़र कहीं रौशन हमारी ज़ात से थे , हम जो बुझ गए गुम हो गए हैं सारे वो शम्स-ओ-क़मर कहीं जब हो सका इलाज , न देखी गई तड़प घबरा के चल दिए हैं सभी चारागर कहीं बरहम हवा से हम ने किया मारका जहाँ बिखरे पड़े हुए हैं वहीँ बाल-ओ-पर कहीं उतरा है दिल में जब से तेरा इश्क-ए-लाज़वाल " पाती नहीं हूँ तब से मैं अपनी ख़बर कहीं" हाथ उस ने इस ख्याल से आँखों पे रख दिया " मुमताज़" खो न जाए तुझे देख कर कहीं शजर – पेड़ , मसरुफ़ियत – व्यस्तता , लाजिम – ज़रूरी , एहतियात – सावधानी , राह-ए-निजात – मोक्ष का रास्ता , राहबर – रास्ता दिखाने वाला , सुकूँ – शांति , उम्र-ए-रफ़्तगाँ – बीत गई उम्र , मुन्तज़िर