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Showing posts from March 20, 2017

हमसफ़र, हमराज़, हमसर, हमनवा कोई नहीं

हमसफ़र , हमराज़ , हमसर , हमनवा कोई नहीं खो चुके हैं हम यहाँ अपना पता कोई नहीं वो हमारे हाल से रहते हैं अक्सर बेनियाज़ है सज़ा इतनी बड़ी लेकिन ख़ता कोई नहीं जिसपे डाली इक नज़र , दुनिया से बेगाना हुआ साहिरी से उन निगाहों की बचा कोई नहीं बेख़ुदी है , मस्तियाँ हैं , है अजब दीवानगी इश्क़ जैसा इस जहाँ में मैकदा कोई नहीं एक अनसुलझा मोअम्मा ही रहा तेरा करम उम्र भर की आज़माइश का सिला कोई नहीं एक साया सा हमारे साथ रहता है सदा ढूंढते फिरते हैं हम लेकिन मिला कोई नहीं दश्त में , बस्ती में , हर महफ़िल में , हर तन्हाई में तू ही तू है हर जगह , तेरे सिवा कोई नहीं हम ने ख़ुद को खो के आख़िर आप को पा ही लिया आपसे “ मुमताज़ ” हमको अब गिला कोई नहीं  हमसफ़र – सफ़र का साथी , हमराज़ – राज़ में शामिल , हमसर – साथी , हमनवा – बातें करने वाला , बेगाना – पराया , साहिरी – जादूगरी , मोअम्मा – पहेली 

सफ़र

दोस्त बन कर मिले अजनबी हो गए राह चलते हुए हमसफ़र खो गए रेगज़ार-ए-कुशादा का लंबा सफ़र और तनहाई का सिलसिला पेशतर रास्ते में निशाँ कैसे कैसे मिले उनके नक़्श-ए-कफ़-ए-पा भी ऐसे मिले आँधियों में सफ़र के निशाँ खो गए और ग़ुबारों में वो नक़्श-ए-पा खो गए रेगज़ार-ए-कुशादा – विशाल रेगिस्तान , पेशतर – सामने , नक़्श-ए-कफ़-ए-पा – पाँव के निशाँ 

ये दिल इक बार फिर तेरी गली का रास्ता ढूँढे

ये दिल इक बार फिर तेरी गली का रास्ता ढूँढे दयार-ए-अजनबी में दर ब दर इक आशना ढूँढे किसी तपते हुए सहरा से गुज़रे हो गई मुद्दत तो ये दर्द आशना दिल पाँव में अब आबला ढूँढे ख़ुलूस , अख़्लाक़ , चाहत की हक़ीक़त देख ली जब से दिल-ए-तन्हा मोहब्बत के लिए इक आईना ढूँढे ये आईना भी अब धुंधला गया है गर्द-ए-वहशत से कहाँ से हमनवा , हमराज़ कोई बारहा ढूँढे मोहब्बत तर्क की , दिल से मगर “ मुमताज़ ” है बेबस ये दिल अब भी तेरी जानिब से कोई राब्ता ढूँढे दयार – शहर , आशना – परिचित , आबला – छाला , ख़ुलूस – सच्चाई , , अख़्लाक़ – अच्छा बर्ताव , हमनवा – जिससे बात कर सकें , हमराज़ – जिसको राज़ बता सकें , बारहा – बार बार , तर्क – त्याग , जानिब – तरफ़ , राब्ता – संपर्क 

मैं हूँ और एक सूना आँगन है

मैं हूँ और एक सूना आँगन है अपनी सब रौनक़ों से अनबन है बेहिसी का शदीद साया है दिल में अब दर्द है , न धड़कन है अब्र से अबके आग बरसी है अबके आया अजीब सावन है अब न टपके लहू न चोट लगे दिल है सीने में अब कि आहन है आबलापाई अब मुक़द्दर है सहरागर्दानी जो मेरा फ़न है तू है हर सू मगर नज़र से परे दरमियाँ जिस्म की ये चिलमन है तेरी रहमत से क्या गिला यारब चाक “ मुमताज़ ” का ही दामन है बेहिसी – भावशून्यता , शदीद – instance, अब्र – बादल , आहन – लोहा , आबलापाई – पाँव में छाले पड़ना , सहरागर्दानी – रेगिस्तान में भटकना , दरमियाँ – बीच में , चिलमन – पारभासी पर्दा , चाक – फटा हुआ 

एक तरही ग़ज़ल - हर किसी मोड़ पे उट्ठा कोई महशर क्यूँ है

हर किसी मोड़ पे उट्ठा कोई महशर क्यूँ है सहमा सहमा सा हर इक मोड़ पे रहबर क्यूँ है हर कोई ख़ौफ़ज़दा , हर कोई वहशत का शिकार ये तलातुम सा हर इक ज़ात के अंदर क्यूँ है ये यज़ीदों की हुकूमत है कि शैतान का शर शाहराहों पे लहूख़ेज़ ये मंज़र क्यूँ है हर इक इंसान पे शैतान का शुबहा हो जाए इस क़दर आज तअस्सुब का वो ख़ूगर क्यूँ है वो तो हर शै में छुपा है ये सभी जानते हैं “ फिर ज़मीं पर कहीं मस्जिद कहीं मंदर क्यूँ है ” पाँव फैलाऊँ मैं कैसे कि न सर खुल जाए इतनी छोटी सी इलाही मेरी चादर क्यूँ है किसकी क़ुर्बानी का तालिब ये हुआ है या रब इतना “ मुमताज़ ” ग़ज़बनाक समंदर क्यूँ है महशर – प्रलय , रहबर – राह दिखाने वाला , तलातुम – लहरों के थपेड़े , शर – झगड़ा , शाहराहों पे – राजपथ पे , लहूख़ेज़ – रक्तरंजित , तअस्सुब – भेदभाव , ख़ूगर – आदी , इलाही – अल्लाह , तालिब – माँगने वाला , ग़ज़बनाक – ग़ुस्से में 

जब भी चाहा तो अज़ाबों का भरम तोड़ दिया

जब भी चाहा तो अज़ाबों का भरम तोड़ दिया एक ही लम्हे ने तक़दीर का रुख़ मोड दिया बैठे बैठे कभी हर ख़्वाब-ए-हसीं तोड़ दिया दिल के टूटे हुए टुकड़ों को कभी जोड़ दिया रतजगे चुभने लगे जब मेरी इन आँखों में मैं ने रातों के अँधेरों को कहीं छोड़ दिया 

ख़ून में हम ने भरा जोश जो दरियाओं का

ख़ून में हम ने भरा जोश जो दरियाओं का हिम्मतें लेती हैं बोसा मेरे इन पाओं का जिनको ठुकरा के गुज़रती रही क़िस्मत अक्सर पूछती है वो पता अब उन्हीं आशाओं का दिलरुबा लगते हैं ये मेरे उरूसी छाले रंग निखरा है अजब आज मेरे घाओं का है सफ़र लंबा अभी और तलातुम है शदीद हश्र क्या जाने हो क्या टूटी हुई नाओं का हौसला मुझको ले आया था तबाही की तरफ़ दोष क्या इसमें मेरे हाथ की रेखाओं का अब खटकने लगे काँटों की तरह वो रिश्ते फ़ासला शहरों से कितना है बढ़ा गाओं का राहतों से ये दिल उकताने लगा है अब तो दर्द में भी है नशा सैकड़ों सहबाओं का   वक़्त ऐसा भी कभी आया है मुमताज़ कि फिर धूप ने माना है एहसान घनी छाओं का  बोसा – चुंबन , दिलरुबा - दिल चुराने वाले , उरूसी – लाल रंग के , तलातुम – लहरों के थपेड़े , शदीद – तेज़ , सहबाओं का – शराबों का