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Showing posts from January 20, 2019

दब के इतने पैकरों में, सांस लेना है अज़ाब

दब के इतने पैकरों में , सांस लेना है अज़ाब ज़िन्दगी मुझ से मिली है ओढ़ कर कितने नक़ाब ये मेरी हस्ती भी क्या है , दूर तक फैला सराब जल रहा है ज़र्रा ज़र्रा , तैश में है आफ़ताब मिट के भी हम कर न पाए उल्फ़तों का एहतेसाब क्या मिला बदला वफ़ा का , इक ख़ला , इक इज़तेराब पढ़ रहे हैं हम अबस , कुछ भी समझ आता नहीं खुल रहे हैं पै ब पै रिश्तों के हम पर कितने बाब क्या करें , बीनाई के ये ज़ख्म भरते ही नहीं चुभता है आँखों में , जब जब टूटता है कोई ख़्वाब ख़्वाब के मंज़र भी अक्सर सच ही लगते हैं , मगर खुल गया सारा भरम , अब हर ख़ुशी है आब आब ज़िन्दगी लेती रही है इम्तेहाँ पर इम्तेहाँ सब्र ओ इस्तेह्काम है हर आज़माइश का जवाब खा के नौ सौ साठ   चूहे , बिल्ली अब हज को चली आसी ए आज़म बने हैं आज कल इज़्ज़त मआब कितने हैं किरदार , माँ , बेटी , बहन , बीवी , ग़ुलाम हाँ मगर , " मुमताज़" की हस्ती , न कोई आब ओ ताब   dab ke itne paikroN meN, saans lena hai azaab zindagi mujh se mili hai odh kar kitne naqaab ye meri hasti bhi kya hai, door tak phaila saraab jal raha hai za