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Showing posts from June 19, 2018

रक्षा बंधन

1. फिर पीहर की सुध आई सखी फिर श्रावणी का त्योहार है आया उल्लास , उजास , प्रवास , सुवास के अगणित रंग मनोहर लाया सब सखियाँ बाबुल देस चलीं पर नाम मेरे संदेस है आया तुझे होवे बधाई कि भाई तेरा इस देस की सरहद पर काम आया मेरे हाथ की राखी भीग चली इन आँखों ने जब जल बरसाया मन बोला मेरे भैया तुम ने रक्षा बंधन का फर्ज़ निभाया 2 . ऐ जवानों देश की धरती को तुम पे नाज़ है हर बहन बेटी की , हर माँ की यही आवाज़ है जागता है जब तलक सरहद पे अपना लाडला छू नहीं सकती हमें कोई मुसीबत या बला तुम हो रक्षक देश के , सरहद के पहरेदार हो और रक्षा सूत्र के सच्चे तुम्हीं हक़दार हो

नई सुबह

ये इक एहसास मेरे दिल प दस्तक दे रहा है जो ये मीठा दर्द सा अंगड़ाई मुझ में ले रहा है जो बहारों की ये आहट जो मेरे गुलशन से आती है तजल्ली रेज़ा रेज़ा कौन से ख़िरमन से आती है फ़रेब-ए-ज़िन्दगी फिर रफ़्ता रफ़्ता खा रही हूँ मैं न जाने कौन सी मंज़िल की जानिब जा रही हूँ मैं नज़र जिस सिम्त डालूँ मैं , बहारें ही बहारें हैं मेरे हर गाम से लिपटे हुए लाखों शरारे हैं ये लगता है कि शिरियानों में बिजली रक़्स करती है गुल-ए-तनहाई पर ये कौन तितली रक़्स करती है हुई बेदार हर हसरत , उम्मीदें हाथ मलती हैं तसव्वर की ज़मीं पर शबनमी बूँदें मचलती हैं तख़य्युल की सभी शाख़ों प ख़्वाबों का बसेरा है नया दिल है , नई मैं हूँ , नया सा ये सवेरा है

ज़हन-ओ-दिल में था, मगर रूह में शामिल होता

ज़हन-ओ-दिल में था , मगर रूह में शामिल होता मेरा सरमाया वही जज़्बा-ए-कामिल होता मैं कशाकश के अज़ाबों से न गुज़री होती काश दिल मेरा तेरे अज़्म से ग़ाफ़िल होता तोड़ने लगती अगर रूह ये ज़ंजीर-ए-हयात साँस की लय प ये दिल रक़्स पे माइल होता जुस्तजू में कभी मुझ तक भी वो आता यारब मेरा दिल भी तो कभी हासिल-ए-मंज़िल होता बेवफाई की सियाही से जो होता रौशन मुझ में ऐ काश वो इक रंग भी शामिल होता इक ज़रा दर्द का अंदाज़ा उसे भी होता मैं जो टूटी थी तो वो भी ज़रा बिस्मिल होता देना पड़ता तुझे हर एक तबाही का हिसाब ऐ मुक़द्दर तू कभी मेरे मुक़ाबिल होता खेलती रहती हूँ तूफ़ानों से लेकिन “ मुमताज़ ” क्या बुरा था जो मेरा भी कोई साहिल होता