ख़्वाबों के बाज़ार सजाए बैठे हैं
ख़्वाबों के बाज़ार सजाए बैठे हैं कितने हैं जो घात लगाए बैठे हैं हश्र बपा है , रक़्स-ए-शरर है बस्ती में हम घर की ज़ंजीर लगाए बैठे हैं ज़ीस्त का मोल चुकाएँ इतनी ताब नहीं अरमानों को दिल में दबाए बैठे हैं सुबह-ए-दरख़्शाँ आएगी इस आस पे हम इन राहों पर आँख बिछाए बैठे हैं क़ीमत छोड़ो , जाँ की भीख ही मिल जाए कब से हम दामन फैलाए बैठे हैं धरती पर फिर उतरेगा ईसा कोई ख़्वाबों की क़ंदील जलाए बैठे हैं इक दिन तो “ मुमताज़ ” ये क़िस्मत चमकेगी ख़ुद को ये एहसास दिलाए बैठे हैं रक़्स-ए-शरर – चिंगारियों का नृत्य , ज़ीस्त – ज़िन्दगी , ताब – ताक़त , सुबह-ए-दरख़्शाँ – चमकदार सुबह