फ़ैज़ के नाम
दिल
में सोचा है जुनूँ की दास्ताँ लिक्खूँ मैं आज
फ़ैज़
की ख़िदमत में लिक्खूँ मैं अक़ीदत का ख़िराज
फ़ैज़
वो, जिसने उठाया शायरी में इन्क़िलाब
फ़ैज़
वो, जो था हर इक हंगामा-ए-ग़म का जवाब
जिसके
दिल में दर्द था इंसानियत के वास्ते
क़ैद
की गलियों से हो कर गुज़रे जिसके रास्ते
उसका
दिल इंसानियत के ज़ख़्म से था चाक चाक
उसका
शेवा आदमीयत, उसका मज़हब इश्तेराक
तेशा-ए-ज़ुल्म-ओ-सितम
से जिसका दिल था लख़्त लख़्त
इम्तेहाँ
जिसके लिए थे गर्दिश-ए-दौराँ ने सख़्त
काँप
उठा था जिसके डर से हुक्म-ए-शाही का दरख़्त
हिल
उठा था ताज-ए-शाही और लरज़ उट्ठा था तख़्त
ज़हर
थी आवाज़ उसकी हुक्मरानों के लिए
और
अमृत बन के बरसी हमज़ुबानों के लिए
जिसका
हर इक लफ़्ज़ हसरत का सिपारा बन गया
जो
अदब के आस्माँ का इक सितारा बन गया
ज़ुल्म
क्या ज़ंजीर पहनाता किसी आवाज़ को
क़ैद
कोई क्या करेगा सोच की परवाज़ को
उसकी
हस्ती को मिटा पाया न कोई हुक्मराँ
ता
अबद क़ायम रहेगी फ़ैज़ की ये दास्ताँ
अक़ीदत
का ख़िराज – श्रद्धांजलि, इन्क़िलाब – क्रांति, चाक चाक – टुकड़े टुकड़े, शेवा – तरीका, इश्तेराक – सर्व धर्म सम
भाव, तेशा – कुदाल, लख़्त लख़्त – टुकड़े टुकड़े, गर्दिश-ए-दौराँ
– गुज़रता हुआ ज़माना, दरख़्त – पेड़, सिपारा – मजहबी किताब का
हिस्सा, परवाज़ – उड़ान, ता अबद – प्रलय तक
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