Posts

Showing posts from June 14, 2018

ज़मीन-ए-दिल को कब से धो रही है

ज़मीन-ए-दिल को कब से धो रही है मोहब्बत चुपके चुपके रो रही है तमन्ना की ज़मीं पर लम्हा लम्हा नज़र शबनम की फ़सलें बो रही है ये दिल माने न माने , सच है लेकिन हमें उस की तमन्ना तो रही है हमें ख़ुद में ही भटकाए मुसलसल हमेशा जुस्तजू सी जो रही है यहाँ बस इक वही रहता है कब से नज़र ये बोझ अब तक ढो रही है हमें जो ले के आई थी यहाँ तक वो तन्हा राह भी अब खो रही है न जाने कब यक़ीं आएगा उस को अभी तक आज़माइश हो रही है गिला “ मुमताज़ ” दुनिया से करें क्या कि क़िस्मत ही हमारी सो रही है