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Showing posts from June 20, 2011

ग़ज़ल - रातों की सियाही पीने को ऐ काश कोई मेहताब तो हो

रातों की सियाही पीने को ऐ काश कोई मेहताब तो हो साँसें हैं तो जीना पड़ता है , जीने के लिए इक ख़्वाब तो हो RAATO.N KI SIYAAHI PEENE KO AYE KAASH KOI MEHTAAB TO HO SAANSE.N HAIN TO JEENA PADTA HAI JEENE KE LIYE IK KHWAAB TO HO आहट न कोई आवाज़ है अब ख़ामोश है अब तो रूह तलक ये तार-ए-नफ़स गा उठ्ठेगा , हाथों में कोई मिज़राब तो हो AAHAT NA KOI AAWAAZ HAI AB, KHAAMOSH HAI AB TO ROOH TALAK YE TAAR E NAFAS GAA UTTHEGA HAATHO.N ME.N KOI MIZRAAB TO HO आएगा मज़ा क्या ख़ाक यहाँ उस पार उतरने का यारो कश्ती को डुबोने की ख़ातिर बेताब कोई गिर्दाब तो हो AAEGA MAZAA KYA KHAAK YAHA.N US PAAR UTARNE KAA YAARO KASHTI KO DUBONE KI KHAATIR BETAAB KOI GIRDAAB TO HO बस साँस ही लेने को साहब जीना तो नहीं कह सकते हैं सीने में ख़लिश तो लाज़िम है , आँखों में ज़रा सा आब तो हो BAS SAANS HI LENE KO SAAHAB JEENA TO NAHIN KEH SAKTE HAIN SEENE ME.N KHALISH BHI LAAZIM HAI AANKHO.N ME.N ZARA SA AAB TO HO अब इश्क़ नहीं हम को उससे , हम से है अबस ये उसका गिला हम जान निछावर कर देंगे उस में वो सिफ़