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Showing posts from February 13, 2017

ग़ज़ल - हुआ सदाक़तों का ख़ूँ, जुनून पर निखार है

ये एक बहुत पुरानी ग़ज़ल है, लेकिन आज के हालात पर भी मौज़ूँ है, मुलाहिज़ा फ़रमाइए हुआ सदाक़तों का ख़ूँ , जुनून पर निखार है अदील रूसियाह है , खुला सितम शआर है अभी तो एशिया में तेल के कई महाज़ हैं अब इसके बाद देखें , अगला कौन सा शिकार है फिर आ पड़ा है वक़्त , फिर मुक़ाबला है कुफ़्र से उठो कमर को बांध लो ये क़ौम की पुकार है बना फिरे वो बंदा-ए-अना ख़ुदा जहान का ग़ुरूर की ये इंतेहा , जहान दरकिनार हैं खड़ा है सर पे वक़्त-ए-अद्ल और ये इशरत-ए-जहाँ ये कैसी गहरी नींद है , ये कौन सा ख़ुमार है वो नाज़िश-ए-जहाँ भी होगा एक दिन ज़मीं तले कि पस्तियों का सिलसिला बलन्दियों के पार है सदाक़तों का सच्चाईयों का , अदील – न्यायाधीश , रूसियाह – काले मुंह वाला , सितम शआर – सितम करना जिसकी आदत हो , महाज़ – मोर्चा , अना – अहं , वक़्त-ए-अद्ल – इंसाफ़ का समय , इशरत-ए-जहाँ – दुनिया के ऐश , नाज़िश-ए-जहाँ – घमंडी , बददिमाग

ग़ज़ल - दिल टूटा, तो वो भी अभी टुकड़ों में बँटा है

दिल टूटा , तो वो भी अभी टुकड़ों में बँटा है इक शख्स मेरी ज़ात के अन्दर जो बसा है इक शोर सा हर गोशा ए दिल में जो मचा है शायद मेरे अन्दर कहीं कुछ टूट गया है जिस में है महक तेरी , तेरा नाम लिखा है हर एक क़दम पर वो निशाँ मुझ को मिला है देता है हर इक लम्हा मुझे एक अज़ीअत ऐ अजनबी , तू कौन है , क्या नाम तेरा है लौटा मेरा माज़ी , तो कहाँ ढूँढेगा मुझ को अब दिल को शब् ओ रोज़ ये धड़का सा लगा है ये अम्र किसी एक के बस का तो नहीं था तू भी है गुनहगार , तो मेरी भी ख़ता है हर ज़र्ब में इक लय है , तो नग़मा है तड़प में इस टीस में , इस दर्द में कुछ और मज़ा है हिम्मत से समंदर में भी बन जाती हैं राहें तदबीर से तक़दीर का लिक्खा भी टला है ख़ामोशी ये मेरी , मेरा इक़रार नहीं है शिकवे तो कई हैं , प् मेरा दहन सिला है अब भी न अगर लौटा तो खो देगा मुझे वो अब तक तो मेरा बाब ए तमन्ना भी खुला है ये लय , ये रवानी , ये तजल्ली , ये हरारत " मुमताज़" मेरी ज़ात में शो ' ला सा जला है गोशा ए दिल-दिल का कोना , अज़ीअत-यातना , माज़ी-भूतकाल , शब् ओ रोज़-दि

ग़ज़ल - रतजगों से ख्व़ाब तक

कितना लम्बा फ़ासला है रतजगों से ख्व़ाब तक एक वीराना बिछा है रतजगों से ख्व़ाब तक मसलेहत तो बेख़ता था , इश्क़ तो मासूम था बाग़ी लम्हों की ख़ता है रतजगों से ख्व़ाब तक ज़ुल्मतें ही ज़ुल्मतें हैं इस सराब ए ज़ात में क़ाफ़िला हर इक लुटा है रतजगों से ख्व़ाब तक खो गई हर एक आहट , सो गई हर इक उम्मीद सिर्फ़ सन्नाटा बचा है रतजगों से ख्व़ाब तक वहशतों की आज़माइश , आरज़ूओं का सराब लम्हा लम्हा जागता है रतजगों से ख्व़ाब तक दर्द से एहसास होता है कि ज़िंदा हूँ अभी बेक़रारी का मज़ा है रतजगों से ख्व़ाब तक दिल से नज़रों तक , नज़र से ज़ुल्मतों के दश्त तक दिल उसी को ढूँढता है रतजगों से ख्व़ाब तक दिल में धड़कन भी नहीं , अब दर्द भी ख़ामोश है   ख़ामुशी का सिलसिला है रतजगों से ख्व़ाब तक किरची किरची ज़ात बिखरी , रेज़ा रेज़ा है वजूद टूट कर सब रह गया है रतजगों से ख्व़ाब तक जंग भी "मुमताज़" जज़्बों की , शिकस्त और जीत भी जाने क्या क्या हो गया है रतजगों से ख्व़ाब तक   मसलेहत-दुनियादारी , ज़ुल्मतें-अँधेरे , सराब ए ज़ात-अपने अन्दर की मृगतृष्णा , वहशतों की- घबराह

ग़ज़ल - ये ख़ला कैसा है दिल में, ज़हन क्यूँ मैला हुआ

ये ख़ला कैसा है दिल में, ज़हन क्यूँ मैला हुआ क्या हुए एहसास सारे, दर्द को ये क्या हुआ YE KHALA KAISA HAI DIL MEN ZEHN KYUN MAILA HUA KYA HUE EHSAAS SAARE DARD KO YE KYA HUA किस तरफ़ जाऊँ बड़ी उलझन में है ज़हन-ओ-नज़र इक पहेली की तरह है रास्ता उलझा हुआ KIS TARAF JAAUN BADI ULJHAN MEN HAI ZEHN O NAZAR IK PAHELI KI TARAH HAI RAASTA ULJHA HUA ख़्वाब दिखला कर सुहाने सारी ख़ुशियाँ लूट ले आस्माँ यारो कोई क़ज़्ज़ाक़ है पहुँचा हुआ  KHWAAB DIKHLA KAR SUNEHRE SAARI KHUSHIYAN LOOT LE AASMAA.N YAARO KOI QAZZAQ HAI PAHONCHA HUA दिल तो टूटा, हसरतें तो पारा पारा हैं मगर मिट गईं सब उलझनें ये भी चलो अच्छा हुआ  DIL TO TOOTA, HASRATEN TO PARA PARA HAIN MAGAR MIT GAIN SAB ULJHANE.N YE BHI CHALO ACHCHHA HUA हम तो समझे थे कि यादों का ये दरिया सर हुआ ये ख़लिश सी क्यूँ है आख़िर, दर्द क्यूँ ज़िन्दा हुआ  HAM TO SAMJHE THE KE YAADO.N KA WO DARIYA SAR HUA YE KHALISH SI KYUN HAI AB PHIR DARD KYUN ZINDA HUA इस सफ़र में हम बहुत आगे निकल आए मगर हम को उलझाए है अब तक वक़्त वो बीता हुआ  IS SAFAR MEN HAM BAHOT AAGE NIKAL AAE MAGAR HAM KO

ग़ज़ल - तसव्वारात के हुबाब दे गया मुझे

तसव्वारात के हुबाब दे गया मुझे उम्मीद के कई अज़ाब दे गया मुझे उठा गया है रूह में सुलगता इन्क़िलाब हर एक पल में सौ इताब दे गया मुझे भटक रहे हैं चार सू वो ख़्वाब ए बे बहा हक़ीक़तों का इक सराब दे गया मुझे वजूद जल के ख़ाक हो गया , कि आज वो सुलगते दिल का इक शेहाब दे गया मुझे निगाहों का हर इक नज़ारा भीगता गया न जाने कितने टूटे ख़्वाब दे गया मुझे बहार के लहू से बुझती है ख़िज़ाँ की प्यास तो आख़िरश वो ये जवाब दे गया मुझे   कि बारिशों में धुल के खिल उठी ज़मीन ए दिल समन्दरों में इक दोआब दे गया मुझे अताएँ बेशुमार हैं , अज़ाब बेबहा हर एक लम्हे का हिसाब दे गया मुझे   यक़ीन को सज़ा ए बेयक़ीनी दे गया किताब ए ज़ीस्त का निसाब दे गया मुझे जला है तार तार दामन ए उम्मीद का वो "नाज़ाँ" कितने आफ़ताब दे गया मुझे तसव्वुरात के-कल्पनाओं के , हुबाब-बुलबुले , अज़ाब-यातना , इताब-ग़ुस्सा , बेबहा-अनमोल , सराब-मरीचिका , शेहाब-आग का गोला , आख़िरश-आखिरकार , दोआब-द्रीय का वो हिस्सा जो ज़मीन निकाल आने से दो धारों में बंट गया हो , ज़ीस्त-जीवन , निसाब- SYLLABUS, आफ