हर तरफ़ वीरानियाँ, हर तरफ़ तारीक रात
हर
तरफ़ वीरानियाँ, हर तरफ़ तारीक रात
दूर
तक फैली हुई बिखरी बिखरी सी हयात
आरज़ू
के दश्त में एक भी पैकर न ज़ात
शोर
से सन्नाटों के गूँजते हैं जंगलात
कब
से करते हैं सफ़र राह है फिर भी तवील
बढ़
रहा है फ़ासला, चल रही हैं मंज़िलात
याद
है हमको अभी लम्हा भर का वो अज़ाब
वहशतों
के हाथ से खाई थी जब हमने मात
चार
पल का वो सुकूँ दे गया कितने अज़ाब
रूह
तक चटखा गया था ये कैसा इल्तेफ़ात
ज़िन्दगी
इक ख़्वाब है, इश्क़ इक सूखा दरख़्त
हसरतें
सब रायगाँ, आरज़ू है बेसबात
कैसे
अब पाएँ निजात क़ैद से “मुमताज़” हम
तोड़
डालेंगी हमें ज़िन्दगी की मुश्किलात
तारीक
- अँधेरी, हयात – ज़िन्दगी, दश्त – जंगल, पैकर – बदन, तवील – लंबा, अज़ाब – यातना, इल्तेफ़ात – मेहरबानी, रायगाँ – बेकार, आरज़ू – ख़्वाहिश, बेसबात – नश्वर, निजात – छुटकारा
वाह
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